दोस्तों, आज हम श्रीरामचरितमानस का एक सूत्र लेंगे और उसका विस्तृत विश्लेषण करेंगे।
"नहिं कलि करम न भक्ति विवेकु।
रामनाम अवलंबन एकु।"
आइये, इसका अर्थ समझें।
"कलियुग में कर्म, भक्ति और विवेक अर्थात ज्ञान ये तीनों ही देखने को नहीं मिलते । अतः रामनाम ही एकमात्र उपाय बचता है।"
कलियुग मतलब? कलियुग मतलब ऐसा युग जिसमें मानवीय गुणों जैसे दयालुता, ईमानदारी, सत्य, अहिंसा का अभाव है। जिसकी नीतियां और जीवनशैली मानवमात्र के मन और प्राणों को जला रही हैं। इस युग में सत्ता, समाज , धर्म और आर्थिक संसाधनों का नियंत्रण एक छोटे समूह के हाथों में होता है जो बहुसंख्यक आम जनता के प्रति संवेदनशील नहीं होते। इस तरह की स्तिथि में आम जनता अनेक तरह की गरीबी, अत्याचार, भेदभाव और शोषण का शिकार होती है। ऐसी घटनाओं को देखकर लोग कह बैठते हैं-"भाई! घोर कलियुग आ गया है"।
अब एक दिलचस्प बात! कलियुग के बाद हमेशा ही सतयुग आता है। सतयुग, जिसमें मानव सभ्यता अपने आदर्श स्वरूप में होती है।
अब एक सवाल लीजिये। कलियुग के बाद सतयुग ही क्यों आता है?
आइये, विस्तार से समझें। कलियुग इसी वजह से कलियुग है क्योंकि उसकी विशेषतायें आम जनता को पीड़ित करने वाली हैं। जैसे? महामारी, युद्ध, बीमारियां, भ्रष्टाचार आदि। शासक वर्ग इनका समाधान करने में सक्षम नहीं हो पाते, अतः आम जनता पीड़ित होती रहती है।लेकिन जिस तरह रात के बाद सुबह आती है, वैसे ही समाज के कुछ उत्साही, कर्मठ लोग उभरकर सामने आना शुरू कर देंते हैं। उनके पास भविष्य के लिए एक ठोस कार्ययोजना होती है। आम जनता को ऐसे लोगों की बात पसंद आती है। एक दिन ऐसा भी आता है जब पूरा समाज ऐसे लोगों के पीछे चल पड़ता है। यही होता है बदलाव का वह क्षण! जब कलियुग खत्म होकर सतयुग की शुरुआत होती है। वैज्ञानिक लोग अपने अनुसंधानों के द्वारा बीमारियों का इलाज ढूंढ लेते हैं। योद्धा लोग अपनी वीरता के द्वारा आतंक और अनाचार को समाप्त कर देते हैं । ईमानदार प्रशासक भ्रष्टाचार को खत्म कर देते हैं। और सबसे बढ़कर, शिक्षक वर्ग अपने ज्ञान के द्वारा देश के भविष्य को शिक्षा केंद्रों में गढ़ना शुरु कर देता है।
आइये, अब मूल चौपाई को देखते हैं। इसमें तुलसीदास जी ने दो बातें कहीं है। पहली बात ये कही गयी कि कलियुग में कर्म, भक्ति और विवेक नहीं हैं अर्थात इनका मिलना मुश्किल है। दूसरी बात ये कही कि इस स्तिथि में रामनाम ही एकमात्र उपाय है।
इन दोनों बातों को हम अलग अलग और कई टुकड़ों में बांटकर समझेंगे।
कलियुग में कर्म अर्थात कर्मयोग कैसे नहीं है? इसलिए नहीं है क्योंकि जब सरकार, समाज और धर्म की नीतियां अस्त व्यस्त हों, तब व्यक्ति को अपने कर्मों का फल उचित रूप से नहीं मिलता। अच्छे कर्म करने के बावजूद दंडित होना पड़ सकता है। वहीं भ्रष्टाचारी और अयोग्य लोग भी दंडित होने के बजाय सफलता को प्राप्त कर सकते हैं! पढ़ाई में हमेशा topper रहा विद्यार्थी भी बेरोजगार रह सकता है! वहीं पहुंच और पैसे के बल पर सर्वथा अयोग्य लोग भी उच्च पदों पर पहुंच सकते हैं।कलियुग में ऐसी घटनाएं बड़ी संख्या में देखने को मिलती हैं। ऐसी घटनाएं हमारे युवाओं को भ्रमित करके उन्हें निराशा की ओर ले जाती हैं जो अपने आप में असंख्य व्याधियों की जड़ है।
सामान्य जीवन की यह बात भक्ति और अध्यात्म क्षेत्र के लिए भी पूर्णतया सत्य है।आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मयोग का अर्थ है सभी जीवों को भगवान का रूप मानकर उनकी सेवा करना एवं खुद कोई श्रेय न लेना! जो लोग बिना अपनी पहचान जाहिर किये परोपकार के काम करते हैं, वो इसी श्रेणी में आते हैं। लेकिन ऐसा करना इस कलियुग में बहुत कठिन है!
अब दूसरी बात। ऐसा क्यों कहा गया कि कलियुग में भक्ति अर्थात भक्तियोग देखने को नहीं मिलता। आध्यात्मिक क्षेत्र में भक्तियोग का मतलब है तन, मन, धन से ईश्वर को समर्पित होना। अधिकांश लोगों के लिए ईश्वर की अवधारणा( concept) को समझना मुश्किल होता है। अतः वो किसी धर्मगुरु की शरण में जाते हैं। कलियुग में अच्छा धर्मगुरु मिलना बहुत ही कठिन है! इसी वजह से कहा गया कि भक्तियोग देखने को नहीं मिलता!
अब ये समझते हैं कि कलियुग में विवेक अर्थात ज्ञानयोग के न होने की बात क्यों कही गई? धार्मिक दृष्टि से देखें तो ज्ञानयोग का अर्थ है धर्म की आधारभूत पुस्तकों जैसे भगवद्गीता, रामायण, बाइबिल, कुरान आदि का अध्ययन करके उनके माध्यम से ईश्वर को जानने का प्रयास करना। इन ग्रंथों में निहित सिद्धान्तों का समाज में प्रचार करना एवं लोगों को इनके अध्ययन हेतु प्रेरित करना भी ज्ञानयोग का एक अंग है। यह कार्य सर्वाधिक कठिन है क्योंकि इसपर केवल पढ़े लिखे , तीक्ष्ण बुद्धि एवं लगनशील लोग ही चल सकते हैं। आज की आपाधापी एवं गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में इन ग्रंथों के अध्ययन मनन के लिए समय निकालना एक कामकाजी आदमी के लिए बहुत कठिन है!
अब इस चौपाई की दूसरी पंक्ति लेते हैं। तुलसीदास जी का कहना है कि जब ज्ञान, भक्ति और कर्म का मिलना मुश्किल हो तो रामनाम ही एकमात्र उपाय है।
दोस्तों, इस बात में एक गूढ़ यौगिक रहस्य छिपा है।आइये, समझते हैं।
रामनाम से यहां क्या तात्पर्य है? ' रम्यते इति रामः' अर्थात जो नाम हमारे मन को आकर्षित करता है, जिसमें हमारा मन सहजरूप से लग जाता है, वही ईश्वर का नाम हमारा रामनाम है।
यहां एक चीज़ ध्यान दें। ईश्वर का जो भी नाम किसी को अच्छा लगे, उसे इस चौपाई में रामनाम बताया गया है। यह नाम कृष्ण, शिव, जीसस, काली, दुर्गा आदि कोई भी हो सकता है।
मित्रों, संसार के सभी धर्मों में ईश्वर के नाम को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। ईश्वर का नाम लेते ही हमें उनका स्मरण होता है, हमें दृढ़ता और बल प्राप्त होता है। इसके अलावा, इसे ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग का आधार माना गया है।
योगविज्ञान के अनुसार ईश्वरप्रणिधान अर्थात ईश्वर के प्रति समर्पण से व्यक्ति सभी सिद्धियों अर्थात उपलब्धियों को प्राप्त कर लेता है। यह प्रक्रिया ईश्वर का नाम लेने से ही शुरू होती है।
ईश्वर का नाम मन की नकारात्मक सोच को बदलकर उसे सकारात्मक उपलब्धियों को हासिल करने के लिए प्रेरित करता है।
एक उदाहरण लेते हैं। practical करते हैं।अगर कोई व्यक्ति कृष्ण नाम ले तो क्या होगा? चलिए, दो मिनट तक पूरी श्रद्धा से मन ही मन कृष्ण का नाम याद करें।
......…........
मन में कौन से विचार आये! बंसी वाले कृष्ण!, सुदर्शन चक्र वाले कृष्ण!, भगवद्गीता वाले कृष्ण! कोई न कोई छवि आपके मन में जरूर आयी होगी। मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो जैसे ही आप ईश्वर का नाम लेना शुरू करते हैं, उनके कार्यों एवं लीलाओं का स्मरण अपने आप ही होने लगता है। कृष्ण नाम लेने वाले की रुचि श्रीमद्भगवद्गीता में जरूर हो जाएगी! यही बात ईश्वर के अन्य नामों पर भी लागू है।
इस पूरी चर्चा से यह स्पष्ट है कि भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग जिस लक्ष्य पर हमें ले जाते हैं, ईश्वर का नाम हमें उसकी प्राप्ति सहज और आसानी से करा देता है।
लेकिन यहां एक बात ध्यान देनेवाली है! तुलसीदास जी ने कर्म, भक्ति और विवेक के न मिलने पर अंतिम उपाय के रूप में ईश्वरनाम को बताया है! ऐसा क्यों? अगर ईश्वर नाम से ही हमें लक्ष्य प्राप्त हो जाये तो कर्म, भक्ति और विवेक की आवश्यकता ही क्या है?
मित्रों, एक बात ध्यान दीजिए।आप जब चाहें, कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग का अभ्यास कर सकते हैं। उदाहरण के लिए दीन दुखियों की मदद कर सकते हैं। मंदिर जाकर पूजा कर सकते हैं। भगवान की कथा और प्रवचन करवा सकते हैं या उनमें भाग ले सकते हैं। ये सब आपके हाथों में है।
लेकिन ईश्वर के नाम में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न होना आपके हाथों में नहीं है। तुलसीदास जी कहते हैं- "सकल सुकृत फल राम सनेहु" मतलब? जिसने बहुत सारे पुण्य अर्थात अच्छे काम किये हैं, केवल उसी की रुचि ईश्वर के नाम में उत्पन्न होती है। जिनपर किसी सच्चे संत की कृपा हो, उनकी भी नाम में रुचि हो जाती है। बाकी लोगों को भक्ति, ज्ञान और कर्म का मार्ग ही अपनाना पड़ता है, जिसमें श्रद्धा पूर्वक आगे बढ़ने पर ईश्वर उनपर कृपा करते हैं और उनकी ईश्वर के नाम में रुचि जग जाती है।
अंत में एक बात। हमें किसी भी धार्मिक कथन को मूल रचनाकाल से जोड़कर जरूर देखना चाहिए। यह चौपाई जब लिखी गयी थी देश में मुग़ल सम्राट अकबर का शासन था। हिंदू धर्म की दशा और दिशा दोनों ही पतन की ओर थी। अतः तुलसीदास जी ने हिन्दू समाज को ईश्वर के नाम से जुड़े रहने को ही अंतिम उपाय बताया। मंदिर तोड़े गए, धर्मगुरु एवं साधु मारे गए, धार्मिक प्रथाओं पर रोक लग गयी। लेकिन रामनाम! वो लोगों के हृदय में बस गया।इसी ने लोगों के धर्म को बचाये रखा और नष्ट हुई परंपराएं फिर से जीवित हो उठीं।
दोस्तों, रामचरितमानस ग्रंथ की रचना कुछ इस तरह से हुई है कि आपको एक चौपाई का अर्थ समझने हेतु कम से कम चार पांच चौपाइयों को देखना पड़ेगा! हम इसके ऊपर अपनी चर्चा को आगे भी जारी रखेंगे। आपकी अपनी वेबसाइट www.ashtyaam.com को स्नेह देने के लिए हार्दिक धन्यवाद!
"नहिं कलि करम न भक्ति विवेकु।
रामनाम अवलंबन एकु।"
आइये, इसका अर्थ समझें।
"कलियुग में कर्म, भक्ति और विवेक अर्थात ज्ञान ये तीनों ही देखने को नहीं मिलते । अतः रामनाम ही एकमात्र उपाय बचता है।"
कलियुग मतलब? कलियुग मतलब ऐसा युग जिसमें मानवीय गुणों जैसे दयालुता, ईमानदारी, सत्य, अहिंसा का अभाव है। जिसकी नीतियां और जीवनशैली मानवमात्र के मन और प्राणों को जला रही हैं। इस युग में सत्ता, समाज , धर्म और आर्थिक संसाधनों का नियंत्रण एक छोटे समूह के हाथों में होता है जो बहुसंख्यक आम जनता के प्रति संवेदनशील नहीं होते। इस तरह की स्तिथि में आम जनता अनेक तरह की गरीबी, अत्याचार, भेदभाव और शोषण का शिकार होती है। ऐसी घटनाओं को देखकर लोग कह बैठते हैं-"भाई! घोर कलियुग आ गया है"।
अब एक दिलचस्प बात! कलियुग के बाद हमेशा ही सतयुग आता है। सतयुग, जिसमें मानव सभ्यता अपने आदर्श स्वरूप में होती है।
अब एक सवाल लीजिये। कलियुग के बाद सतयुग ही क्यों आता है?
आइये, विस्तार से समझें। कलियुग इसी वजह से कलियुग है क्योंकि उसकी विशेषतायें आम जनता को पीड़ित करने वाली हैं। जैसे? महामारी, युद्ध, बीमारियां, भ्रष्टाचार आदि। शासक वर्ग इनका समाधान करने में सक्षम नहीं हो पाते, अतः आम जनता पीड़ित होती रहती है।लेकिन जिस तरह रात के बाद सुबह आती है, वैसे ही समाज के कुछ उत्साही, कर्मठ लोग उभरकर सामने आना शुरू कर देंते हैं। उनके पास भविष्य के लिए एक ठोस कार्ययोजना होती है। आम जनता को ऐसे लोगों की बात पसंद आती है। एक दिन ऐसा भी आता है जब पूरा समाज ऐसे लोगों के पीछे चल पड़ता है। यही होता है बदलाव का वह क्षण! जब कलियुग खत्म होकर सतयुग की शुरुआत होती है। वैज्ञानिक लोग अपने अनुसंधानों के द्वारा बीमारियों का इलाज ढूंढ लेते हैं। योद्धा लोग अपनी वीरता के द्वारा आतंक और अनाचार को समाप्त कर देते हैं । ईमानदार प्रशासक भ्रष्टाचार को खत्म कर देते हैं। और सबसे बढ़कर, शिक्षक वर्ग अपने ज्ञान के द्वारा देश के भविष्य को शिक्षा केंद्रों में गढ़ना शुरु कर देता है।
आइये, अब मूल चौपाई को देखते हैं। इसमें तुलसीदास जी ने दो बातें कहीं है। पहली बात ये कही गयी कि कलियुग में कर्म, भक्ति और विवेक नहीं हैं अर्थात इनका मिलना मुश्किल है। दूसरी बात ये कही कि इस स्तिथि में रामनाम ही एकमात्र उपाय है।
इन दोनों बातों को हम अलग अलग और कई टुकड़ों में बांटकर समझेंगे।
कलियुग में कर्म अर्थात कर्मयोग कैसे नहीं है? इसलिए नहीं है क्योंकि जब सरकार, समाज और धर्म की नीतियां अस्त व्यस्त हों, तब व्यक्ति को अपने कर्मों का फल उचित रूप से नहीं मिलता। अच्छे कर्म करने के बावजूद दंडित होना पड़ सकता है। वहीं भ्रष्टाचारी और अयोग्य लोग भी दंडित होने के बजाय सफलता को प्राप्त कर सकते हैं! पढ़ाई में हमेशा topper रहा विद्यार्थी भी बेरोजगार रह सकता है! वहीं पहुंच और पैसे के बल पर सर्वथा अयोग्य लोग भी उच्च पदों पर पहुंच सकते हैं।कलियुग में ऐसी घटनाएं बड़ी संख्या में देखने को मिलती हैं। ऐसी घटनाएं हमारे युवाओं को भ्रमित करके उन्हें निराशा की ओर ले जाती हैं जो अपने आप में असंख्य व्याधियों की जड़ है।
सामान्य जीवन की यह बात भक्ति और अध्यात्म क्षेत्र के लिए भी पूर्णतया सत्य है।आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मयोग का अर्थ है सभी जीवों को भगवान का रूप मानकर उनकी सेवा करना एवं खुद कोई श्रेय न लेना! जो लोग बिना अपनी पहचान जाहिर किये परोपकार के काम करते हैं, वो इसी श्रेणी में आते हैं। लेकिन ऐसा करना इस कलियुग में बहुत कठिन है!
अब दूसरी बात। ऐसा क्यों कहा गया कि कलियुग में भक्ति अर्थात भक्तियोग देखने को नहीं मिलता। आध्यात्मिक क्षेत्र में भक्तियोग का मतलब है तन, मन, धन से ईश्वर को समर्पित होना। अधिकांश लोगों के लिए ईश्वर की अवधारणा( concept) को समझना मुश्किल होता है। अतः वो किसी धर्मगुरु की शरण में जाते हैं। कलियुग में अच्छा धर्मगुरु मिलना बहुत ही कठिन है! इसी वजह से कहा गया कि भक्तियोग देखने को नहीं मिलता!
अब ये समझते हैं कि कलियुग में विवेक अर्थात ज्ञानयोग के न होने की बात क्यों कही गई? धार्मिक दृष्टि से देखें तो ज्ञानयोग का अर्थ है धर्म की आधारभूत पुस्तकों जैसे भगवद्गीता, रामायण, बाइबिल, कुरान आदि का अध्ययन करके उनके माध्यम से ईश्वर को जानने का प्रयास करना। इन ग्रंथों में निहित सिद्धान्तों का समाज में प्रचार करना एवं लोगों को इनके अध्ययन हेतु प्रेरित करना भी ज्ञानयोग का एक अंग है। यह कार्य सर्वाधिक कठिन है क्योंकि इसपर केवल पढ़े लिखे , तीक्ष्ण बुद्धि एवं लगनशील लोग ही चल सकते हैं। आज की आपाधापी एवं गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में इन ग्रंथों के अध्ययन मनन के लिए समय निकालना एक कामकाजी आदमी के लिए बहुत कठिन है!
अब इस चौपाई की दूसरी पंक्ति लेते हैं। तुलसीदास जी का कहना है कि जब ज्ञान, भक्ति और कर्म का मिलना मुश्किल हो तो रामनाम ही एकमात्र उपाय है।
दोस्तों, इस बात में एक गूढ़ यौगिक रहस्य छिपा है।आइये, समझते हैं।
रामनाम से यहां क्या तात्पर्य है? ' रम्यते इति रामः' अर्थात जो नाम हमारे मन को आकर्षित करता है, जिसमें हमारा मन सहजरूप से लग जाता है, वही ईश्वर का नाम हमारा रामनाम है।
यहां एक चीज़ ध्यान दें। ईश्वर का जो भी नाम किसी को अच्छा लगे, उसे इस चौपाई में रामनाम बताया गया है। यह नाम कृष्ण, शिव, जीसस, काली, दुर्गा आदि कोई भी हो सकता है।
मित्रों, संसार के सभी धर्मों में ईश्वर के नाम को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। ईश्वर का नाम लेते ही हमें उनका स्मरण होता है, हमें दृढ़ता और बल प्राप्त होता है। इसके अलावा, इसे ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग का आधार माना गया है।
योगविज्ञान के अनुसार ईश्वरप्रणिधान अर्थात ईश्वर के प्रति समर्पण से व्यक्ति सभी सिद्धियों अर्थात उपलब्धियों को प्राप्त कर लेता है। यह प्रक्रिया ईश्वर का नाम लेने से ही शुरू होती है।
ईश्वर का नाम मन की नकारात्मक सोच को बदलकर उसे सकारात्मक उपलब्धियों को हासिल करने के लिए प्रेरित करता है।
एक उदाहरण लेते हैं। practical करते हैं।अगर कोई व्यक्ति कृष्ण नाम ले तो क्या होगा? चलिए, दो मिनट तक पूरी श्रद्धा से मन ही मन कृष्ण का नाम याद करें।
......…........
मन में कौन से विचार आये! बंसी वाले कृष्ण!, सुदर्शन चक्र वाले कृष्ण!, भगवद्गीता वाले कृष्ण! कोई न कोई छवि आपके मन में जरूर आयी होगी। मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो जैसे ही आप ईश्वर का नाम लेना शुरू करते हैं, उनके कार्यों एवं लीलाओं का स्मरण अपने आप ही होने लगता है। कृष्ण नाम लेने वाले की रुचि श्रीमद्भगवद्गीता में जरूर हो जाएगी! यही बात ईश्वर के अन्य नामों पर भी लागू है।
इस पूरी चर्चा से यह स्पष्ट है कि भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग जिस लक्ष्य पर हमें ले जाते हैं, ईश्वर का नाम हमें उसकी प्राप्ति सहज और आसानी से करा देता है।
लेकिन यहां एक बात ध्यान देनेवाली है! तुलसीदास जी ने कर्म, भक्ति और विवेक के न मिलने पर अंतिम उपाय के रूप में ईश्वरनाम को बताया है! ऐसा क्यों? अगर ईश्वर नाम से ही हमें लक्ष्य प्राप्त हो जाये तो कर्म, भक्ति और विवेक की आवश्यकता ही क्या है?
मित्रों, एक बात ध्यान दीजिए।आप जब चाहें, कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग का अभ्यास कर सकते हैं। उदाहरण के लिए दीन दुखियों की मदद कर सकते हैं। मंदिर जाकर पूजा कर सकते हैं। भगवान की कथा और प्रवचन करवा सकते हैं या उनमें भाग ले सकते हैं। ये सब आपके हाथों में है।
लेकिन ईश्वर के नाम में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न होना आपके हाथों में नहीं है। तुलसीदास जी कहते हैं- "सकल सुकृत फल राम सनेहु" मतलब? जिसने बहुत सारे पुण्य अर्थात अच्छे काम किये हैं, केवल उसी की रुचि ईश्वर के नाम में उत्पन्न होती है। जिनपर किसी सच्चे संत की कृपा हो, उनकी भी नाम में रुचि हो जाती है। बाकी लोगों को भक्ति, ज्ञान और कर्म का मार्ग ही अपनाना पड़ता है, जिसमें श्रद्धा पूर्वक आगे बढ़ने पर ईश्वर उनपर कृपा करते हैं और उनकी ईश्वर के नाम में रुचि जग जाती है।
अंत में एक बात। हमें किसी भी धार्मिक कथन को मूल रचनाकाल से जोड़कर जरूर देखना चाहिए। यह चौपाई जब लिखी गयी थी देश में मुग़ल सम्राट अकबर का शासन था। हिंदू धर्म की दशा और दिशा दोनों ही पतन की ओर थी। अतः तुलसीदास जी ने हिन्दू समाज को ईश्वर के नाम से जुड़े रहने को ही अंतिम उपाय बताया। मंदिर तोड़े गए, धर्मगुरु एवं साधु मारे गए, धार्मिक प्रथाओं पर रोक लग गयी। लेकिन रामनाम! वो लोगों के हृदय में बस गया।इसी ने लोगों के धर्म को बचाये रखा और नष्ट हुई परंपराएं फिर से जीवित हो उठीं।
दोस्तों, रामचरितमानस ग्रंथ की रचना कुछ इस तरह से हुई है कि आपको एक चौपाई का अर्थ समझने हेतु कम से कम चार पांच चौपाइयों को देखना पड़ेगा! हम इसके ऊपर अपनी चर्चा को आगे भी जारी रखेंगे। आपकी अपनी वेबसाइट www.ashtyaam.com को स्नेह देने के लिए हार्दिक धन्यवाद!
बहुत बढ़िया विश्लेषण।
ReplyDelete