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श्रीकागभुशुंडि::विद्रोह से समर्पण तक की महागाथा Shrikagbhushundi:: The greatest Journey from Suspicion to Devotion



दोस्तों, विश्वास है कि आपकी यह वेबसाइट www. ashtyaam. com आपके लिए उपयोगी सिद्ध हो रही है।इसकी सफलता के पीछे आप लोगों का ही प्रेम और स्नेह है।

आइये, आज जानते है श्री कागभुशुण्डि जी के बारे में। Let us know about sri kagbhusundi ji who is regarded as one of the biggest devotees and preachers of Sriram katha! श्रीरामकथा के इस पात्र की चर्चा बहुत कम होती है। लेकिन वह उन गिने चुने पात्रों में हैं जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व में रामकथा के प्रचार- प्रसार के लिए नींव के पत्थर की तरह कार्य किया है। साधारण लोग तो रामकथा का एक कणमात्र ही जानने से सभी दुखों से मुक्त हो जाते हैं। आपाधापी से भरे जीवन में उन्हें रामकथा का मर्म समझ पाने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता! लेकिन कागभुशुण्डि जैसे महापुरुष इस कथा के मर्म को जानते हैं। उनका  चरित्र हर युग में लोगों को रामकथा में रुचि लेने को प्रेरित करता है।
आइये, शुरुआत एक अनूठे सवाल से करें।
बताइए-" श्रीरामचंद्र जी ने इस धरती पर कितनी बार अवतार लिया?"
"एक बार ?"
" नहीं"
" फिर कितनी बार?"
"असंख्य बार"
"वो कैसे?"
" मानव सभ्यता बारी- बारी से चार युगों से गुजरती रहती है- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। इनमें श्रीराम का अवतार हर त्रेता युग में होता है। आज तक इस धरती पर असंख्य बार त्रेता युग बीत चुका है। अतः श्रीराम का अवतार भी अनगिनत बार हो चुका है!"
" तो फिर हर युग की रामकथा भी अलग होगी?"
" हाँ, थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ हर बार ये रामकथा लिखी जाती है और धरती पर मौजूद मानव समाज के लिए एक आदर्श स्तंभ का कार्य करती रहती है। करोड़ों लोग इस रामकथा से प्रेरणा पाते हैं"

दोस्तों, ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव,ब्रम्हा जी, नारद, कागभुशुण्डि आदि गिनी चुनी विभूतियां ही रामकथा के असली मूल तत्व को जानती हैं क्योंकि ये काल की सीमाओं से परे हैं और हर त्रेतायुग में होनेवाले इस ईश्वरीय लीला को देख सकते हैं।इनके स्मरणमात्र से ही रामकथा में रुचि हो जाती है।

दोस्तों, विषय से हटकर एक बात ध्यान में आ रही है। दुनिया में आज तक जितने भी धर्म,सम्प्रदाय या धार्मिक विचारधाराएं हुई हैं, उनके शीर्ष व्यक्तित्वों को हम दो श्रेणियों में रख सकते हैं।पहली श्रेणी में वो संत आते हैं जिन्हें नींव का पत्थर कहा जा सकता है। उन्हें यश, प्रतिष्ठा, धन, परिवार और सामाजिक प्रभाव आदि किसी भी सांसारिक चीज़ से कोई मतलब नहीं होता।उन्हें अपने धार्मिक विश्वास पर अटूट श्रद्धा होती है और वो हर प्राणी को ईश्वर का रूप मानकर चलते हैं।अक्सर गुमनाम ही रहने वाले ऐसे लोग जहाँ भी जाते हैं वहां दया, सहानुभूति, करुणा, सत्य और कर्तव्यनिष्ठा आदि मूल मानवीय आदर्शों का प्रचार प्रसार करते हैं ।इनकी उपस्थिति ही लोगों में ऊर्जा भर देती है और इनके दम पर ही लोगों की आस्था धर्म में टिकी रहती है। जिस धर्म में भी ऐसे लोग होते हैं, वह लाख विपरीत परिस्थितियों में भी अपना अस्तित्व कायम रखता है और कभी नष्ट नहीं होता।
अब बात करते हैं दूसरी श्रेणी की।इसमें ऐसे लोग आते हैं जिनमें रजोगुण अधिक होता है। धर्म के आधार पर ये लोग आश्रम,संगठन, सेना,धर्मशाला,स्कूल,अस्पताल,धार्मिक उपासना स्थलों आदि का निर्माण करते हैं।इन्हें प्रचुर मात्रा में सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है और इनका मुख्य लक्ष्य हर तरफ अपने धर्म का प्रचार प्रसार करना होता है। इनके द्वारा बहुत बड़ी संख्या में लोगों की सेवा की जाती है।
लिखना नहीं चाहता पर एक तीसरी श्रेणी भी है।उन लोगों की जो धर्म को व्यवसाय और शक्ति का साधन मानते हैं। लेकिन हम उनकी बात करके वक्त बर्बाद नहीं करेंगे!

आइये, मूल विषय पर वापस आएं।इतनी चर्चा के बाद आप इतना तो जान ही गए होगें कि हमारे कागभुशुण्डि जी किस श्रेणी के संतों में आते हैं! जी हाँ, आपने बहुत सही सोचा! ये संतों की प्रथम श्रेणी में आते हैं।इन्हें  मानव को दुखों से छुटकारा दिलाने वाली रामकथा के अलावा कुछ और प्रिय नहीं है।ये मानते हैं कि रामकथा दुनिया के सभी मनुष्यों के हृदय में बसनेवाली उस परमशक्ति की शक्तियों का गायन है जिसे संसार में बहुत से नामों से संबोधित किया जाता है।इनके अनुसार जो लोग अपने भीतर मौजूद रावण रूपी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची इच्छा रखते हैं और प्रयास करते हैं, वे सभी रामकथा के अधिकारी हैं और रामकथा उनके लिए ही है!

आइये, अब मूल विषय पर लौटें। कागभुशुण्डि जी की जीवन कथा पर।इनकी कथा से दो चीजों का भरोसा होता है। पहली ये कि अच्छे लोगों की संगति हमें बहुत बड़े बड़े संकटों से भी बच लेती है। दूसरी ये कि हमें ईश्वर के सभी रूपों के प्रति आदरभाव रखना चाहिए।
अब आते हैं इनकी कहानी पर।
एक समय की बात है।धरती पर कलियुग चल रहा था।इसी समय उनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ।बचपन से ही उन्होंने बाधाओं का सामना किया।पढ़ाई लिखाई में ये बड़े तेज थे।तर्कशील थे।अपनी पैनी दृष्टि से लोगों का व्यक्तित्व सहज ही भांप जाते थे।धार्मिक पाखंड का अपने अचूक तर्कों से प्रबल विरोध किया करते थे।
भाइयों, कागभुशुण्डि में बहुत सारे गुण थे।लेकिन दो अवगुण भी थे। उनमें पहली कमी ये थी कि वे दरिद्र थे। दरिद्रता ने उनके युवा मन में चल रहे सारे सपनों को हकीकत के धरातल पर पटककर नष्ट कर दिया।आह!खाली जेब का बोझ उठाना सचमुच बहुत भारी होता है! आगे जाकर अपने उपदेशों में उन्होंने दरिद्रता को सबसे बड़ा दुख बताया है।

उनकी दूसरी कमी ये थी कि जहाँ भी उन्हें कोई कमी या अनियमितता दिखती, वे अपनी कटु वाणी के द्वारा उसका विरोध करते!भ्रष्टाचार का विरोध!भाई भतीजावाद का विरोध! धार्मिक अंधविश्वास का विरोध!सामाजिकता के उस दोहरे मापदंड का विरोध जो अमीरों को तो सर आंखों पर बैठाती है वहीं गरीबों को प्रोत्साहन के दो बोल बोलने में भी कंजूसी करती है!

दोस्तों, खाली जेब और दुखों से भरा हुआ दिल आदमी को अराजकता की ओर ले जाते हैं। कागभुशुण्डि जी के विद्रोही स्वभाव और हर बात में हस्तक्षेप करके आलोचना करने की उनकी प्रवृत्ति के कारण लोगों ने उन्हें कागभुशुण्डि कहना शुरू कर दिया। काग मतलब कौवा।भुसुंडि मतलब सड़े हुए गोबर का पिंड। कागभुशुण्डि  अर्थात ऐसा कौवा जो सड़े हुए गोबर में चोंच मारता हो! यह एक निकृष्ट उपाधि थी जो उन्हें लोगों द्वारा व्यंग्य में दी गयी थी। लेकिन आगे चलकर हम देखेंगे कि संसार पूज्य बन जाने के बाद भी उन्होंने अपना यह नाम नहीं छोड़ा!इस नाम से बचने के लिए कुछ लोग उन्हें काग भूषण भी कहते हैं।

अब आगे चलिए। हम देख चुके हैं कि उन्हें कदम कदम पर संसार की कड़वी सच्चाइयों का सामना करना पड़ा।सफलता मिली नहीं।बेचारे अयोध्या की गलियों में मारे मारे फिरते! लोगों के लिए वह केवल उपहास का विषय बन गए।
मित्रों, यह हमारे समाज की अजीब विडंबना है कि दरिद्र को कोई भी भाव नहीं देता! सब डरते हैं कि ये कुछ मांग न बैठे!उसके गुणों पर शायद ही किसी की दृष्टि जाती हो!।मैंने सामाजिक क्षेत्र में काम करते हुए बहुत नजदीक से इस बात को देखा है। अनगिनत बच्चों की प्रतिभायें केवल इस वजह से दम तोड़ देती हैं क्योंकि उनका जन्म एक गरीब मां बाप के घर हुआ है। गरीबी और बेरोजगारी इन दोनों का बहुत गहरा संबंध है। इनके कुचक्र से निकलना आसान नहीं।

अब एक दिलचस्प बात! कागभुशुण्डि जी ने देखा कि अयोध्यापुरी में कुछ लोग धर्म को व्यवसाय बनाकर धन कमा रहे थे। वो अब धर्म से जुड़ गए। शिव जी की भक्ति करने लगे। लेकिन बात कुछ जमी नहीं।

हमारे काग भूषण जी ने अयोध्या छोड़ दी। आ गए उज्जैन में।महाकाल की नगरी में जहाँ का कण-कण शिवमय है। आते ही उनकी पहचान एक दयालु सज्जन से हो गयी। वह इनकी प्रतिभा को देखकर बड़े प्रसन्न हुए और इन्हें अपने घर पर ही रख लिया।काग जी इनके शिष्य बन गए।

काग भूषण जी के आश्रयदाता जाति से ब्राम्हण थे। बड़े ही भावुक! दयालु और भक्ति में लीन रहने वाले। जब शास्त्रों का पाठ करते तो भावनाओं में बह जाते! शुद्वि अशुद्धि की परवाह कहीं पीछे रह जाती। काग जी को थोड़े ही दिनों में लगने लगा कि वे अपने गुरु से हर मामले में श्रेष्ठ हैं। वो अपने गुरुजी को जब तब टोकने भी लगे। लेकिन गुरुजी ने कभी बुरा नहीं माना। उनकी उद्दंडता को क्षमा करते रहे।
अब कहानी में बड़ा मोड़ आता है। काग जी ने अपने ज्ञान और बुद्धि के मद में अब सार्वजनिक रूप से भी गुरु का तिरस्कार शुरू कर दिया था! यश-प्रतिष्ठा, धन-सम्मान को धार्मिक पाखंड के जरिये हासिल करने के उनके स्वप्न में उनके भोले-भाले गुरुजी आड़े आ रहे थे।
एक दिन की बात है। कागभूषण जी मंदिर में भगवान भोलेनाथ की पूजा कर रहे थे। तभी उनके गुरुजी वहां आये। कागभूषण जी ने उन्हें प्रणाम भी नहीं किया। गुरुजी थे मस्तमौला! उनको फर्क नहीं पड़ा!
लेकिन मित्रों, भगवान भोलेनाथ से यह घटना बर्दाश्त नहीं हुई।उन्होंने कागभुशुण्डि जी को श्राप दे दिया।

अब एक सवाल लीजिए। भगवान शिव तो सबका कल्याण करते हैं।उन्होंने श्राप क्यों दे दिया?

यह एक बड़ा सवाल है जिसपर हमें विचार करना चाहिए। एक बहुत बड़ा रहस्य यह है कि सृष्टि में ज्ञान का प्रवाह गुरु-शिष्य परंपरा से ही होता आया है।अगर किसी को ज्ञान प्राप्त करना है तो उसे गुरु चाहिए।अगर किसी को ज्ञान बांटना है, सिखाना है तो उसे शिष्य चाहिए।गुरु का स्थान हमेशा शिष्य से ऊपर एवं पूज्य रहा है।अगर शिष्य अपने गुरु का सम्मान न करे तो युगों-युगों से अनवरत बहता आ रहा ज्ञान का प्रवाह विच्छिन्न हो जाएगा, कहीं खो जाएगा!इतिहास गवाह है, इस गुरु शिष्य परंपरा को तोड़ने की जिसने कोशिश की, श्राप का ही भागी बना। कर्ण, अश्वत्थामा भी इस बात के प्रसिद्ध उदाहरण हैं।


तो यहां भी यही हुआ! गुरु शिष्य मर्यादा की रक्षा हेतु भोलेनाथ ने कागभुशुण्डि जी को श्राप दे दिया।
कागभुशुण्डि जी की बर्बादी अब निश्चित थी।
लेकिन एक चमत्कार अभी बाकी था!उनके दयालु गुरुदेव ने अपने प्राणों को शिष्य के लिए झोंक दिया! मंदिर में ही अपने द्वारा रचित श्लोकों से  भोलेनाथ की स्तुति करने लगे।भक्त के आगे भगवान विवश हो जाते हैं। भोलेनाथ ने अपना श्राप वापस नहीं लिया। लेकिन उन्होंने इसे वरदान में बदल दिया। यह कहा कि कागभुशुण्डि जी को हमेशा अपने सभी जन्मों की स्मृति बनी रहेगी ,जन्म और मृत्यु के समय कष्ट नहीं होगा और भगवान श्रीराम की भक्ति से इसका कल्याण होगा।

मित्रों, रामचरितमानस में वर्णित यह घटना अपने आप में अनेक रहस्य छिपाए हुए है, जिनको आज के युवाओं को तो जरूर जानना चाहिए। वादा करता हूँ, इसी वेबसाइट पर एक अन्य लेख में हम इसे जानेंगे।

अब आगे। कागभुसुंडि जी इस घटना के बाद हमेशा के लिए बदल गए।वह अपनी आंखों से इस संसार का सत्य देख चुके थे और ईश्वर में उनका अटूट विश्वास हो चुका था। शास्त्रों की सत्यता अब उन्हें समझ में आ चुकी थी।

अनेक वर्णन ऐसे मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि हमारे विद्रोही संत ने रामभक्ति को ही अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।हजारों जन्म लिए। हजारों बार मरे। लाखों कष्ट झेले। लेकिन रामभक्ति उनके हृदय में बसी रही।
हजारों जन्मों के बाद एक समय ऐसा आया जब उनका जन्म एक भक्तिमान ब्राम्हण परिवार में हुआ।अपने सद्गुणों, ज्ञान और भक्ति से वह युवावस्था में ही विख्यात हो गए। उस समय के महान ऋषि लोमश जी ने उन्हें अपना शिष्य बनाया। ऋषि लोमश के पास ऐसी विद्या थी जिससे मनुष्य अनंतकाल तक जी सकता था।
कथा बताती है कि लोमश ऋषि की अपने इस शिष्य से बनी नहीं। कागभूषण जी तो हजारों बार जन्म और मृत्यु से गुजर चुके थे!स्वभाविक था कि अमरता की विद्या में उनकी रुचि नहीं थी।इसी बिंदु पर वाद विवाद के दौरान गुरू लोमश जी ने उन्हें काग अर्थात कौवा बनने का श्राप दे दिया। इससे यह स्पष्ट होता है ,इस जन्म में भी उनके बोलने की शैली वैसी ही थी, जैसी अयोध्या के जन्म में थी।

लेकिन एक चमत्कार यहां भी हुआ।पिछली बार तो भगवान के श्राप से गुरु ने बचाया था।इस बार गुरू ने श्राप दिया और भगवान ने बचाया।
कथा कहती है, श्राप देने के बाद लोमश ऋषि को बहुत अफसोस होता रहा। उन्होंने इसका प्रायश्चित किया।उन्होंने अपने इस अनूठे शिष्य को बुलाया। अमरता की विद्या देकर काग जी को इच्छामृत्यु में समर्थ बना दिया। राम मंत्र की दीक्षा दी और रामभक्ति का वो मूल रहस्य बताया जिससे कागभुशुण्डि जी की भक्ति सम्पूर्ण हो गयी। उन्होंने अपने अस्तित्व को रामभक्ति में विलीन  कर दिया। अपने गुरु के इस श्राप को उन्होंने अपने लिए परम कल्याणकारी माना। अगले जन्म में उन्हें कौवे का शरीर प्राप्त हुआ जिसे गुरुकृपा से प्राप्त हुआ मानकर वे इसी रूप में श्रीरामकथा का प्रचार-प्रसार करने लगे।
मित्रों, अब रामकथा का प्रबल सामर्थ्य देखिए! उनसे इस कथा को सुनने के लिए देवता, संत, ऋषि-महर्षि और खुद आदियोगी भगवान भोलेनाथ भी आने लगे!

अलग-अलग ग्रंथों में खोजने पर कुछ ऐसे संकेत मिल जाते हैं जिससे उनकी कथा कहने की शैली पर कुछ प्रकाश पड़ता है।यहां पर एक संकेत देता हूँ। मान लीजिए कोई उनके पास रामकथा सुनने जाए, तो क्या होगा? वो आपके मन में मौजूद सभी संदेहों और प्रश्नों को पहले बढ़ावा देंगे।इससे आपके मन की सारी ग्रंथियां, सारे अंधविश्वास, सारे कुतर्क बाहर आ जाएंगे। इसके बाद वो शुरू करेंगे अपनी रामकथा! जैसे-जैसे आप सुनते जाओगे, आपका एक-एक संदेह बारी-बारी से नष्ट होता जायेगा! कुल मिलाकर देखें, तो उनकी रामकथा संदेह, अंधविश्वास और कुतर्कों से शुरू होती है और श्रद्धा, विश्वास और समर्पण पर जाकर खत्म होती है। है न कमाल की बात!

मित्रों, आज बस यहीं तक । हम आगे भी महापुरुषों का ये स्मरण जारी रखेंगे। विश्वास करता हूँ, आप अपनी इस वेबसाइट www. ashtyaam. com को इसी तरह प्यार करते रहेंगे। धन्यवाद।







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