मित्रों, सबसे पहले आप सब का आभार। आपने अपनी इस वेबसाइट को बहुत प्यार दिया है।
आइये।आज खजुराहो चलते हैं। यह बड़ा ही विशिष्ट स्थल है।इसके नाम से ही कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं।वहीं कुछ लोगों के होठों पर मुस्कान आ जाती है।
ऐसा क्यों है?ऐसा इस वजह से है कि हम भारतवासियों ने कभी खजुराहों को अपनी नजर से देखा ही नहीं।विदेशी लोग यहां बड़ी संख्या में आते हैं। यहां के बारे में विदेशियों ने बहुत कुछ लिखा भी है! और हम भारतवासी उनकी बातों पर भरोसा करके उनके नजरिये से ही इस ऐतिहासिक स्थल को देखते आये हैं।त्याग और आध्यात्मिकता का संदेश देने वाले यहां के मंदिरों को विदेशी लेखकों के प्रभाव में आकर हम भोगवादी संस्कृति का पोषक मान बैठे हैं!
चलिए, आज की यात्रा हम एक अलग नजरिये के साथ करेंगे।यहां के बारे में पूरा सच जानेंगे जो अभी तक अधिकांश लोगों की नजर से ओझल रहा है। बस आप मेरे साथ बने रहें।
पहले कुछ इतिहास की बात करते हैं जिसे हम इसी लेख में आगे जाकर वर्तमान से भी जोड़ेंगे।
हजार साल पहले की बात है। उस समय भारत सैंकड़ों छोटे-बड़े राज्यों में बंटा था। इनपर अलग अलग राजवंशों का शासन था। बुंदेलखंड और मध्य भारत के हिस्सों पर चंदेल राजवंश का शासन था जो तत्कालीन भारत के सबसे शक्तिशाली राजाओं में गिने जाते थे। खजुराहो उनकी राजधानी थी।
भारत की एक परंपरा रही है। राजसत्ता के महिमामंडन की परंपरा। अधिकांश राजवंशों के साथ आपको कोई न कोई अलौकिक घटना अवश्य जुड़ी हुई मिलेगी। चंदेल राजवंश से जुड़ी हुई अलौकिकता को महान कवि चंद्रवरदाई ने अपने अमरकाव्य पृथ्वीराज रासो के महोबा खंड में विस्तार से लिखा है।
काशी के एक महाविद्वान की बेटी थी हेमवती। विधवा थी। बुद्धिमता और सौंदर्य में अद्वितीय थी। उसके रूप और गुणों को देखकर चंद्र देवता उससे प्रभावित हुए।एक बार हेमवती चांदनी रात में स्नान करने हेतु कमल पुष्पों से भरे एक एकांत सरोवर में गयी। चंद्र देव ने मानव रूप में आकर उसका हरण कर लिया।
कहानी में आगे अनेक मोड़ आये। हेमवती चंद्रवर्मन नामक पुत्र की माता बनी।चंद्र वर्मन बहुत वीर योद्धा बना। हर युद्ध में विजय उसी की होती। उसने चंदेल साम्राज्य की स्थापना की और खजुराहो को अपनी राजधानी बनाया। खजुराहो में उसने अनेक मंदिर और तालाब बनवाये। नगर को खूब सुंदर और समृद्ध किया। इसके बाद अपनी माता हेमवती के आदेश पर उसने खजुराहो में एक बहुत बड़ा यज्ञ आयोजित किया। इसी यज्ञ से चंदेलों की उत्पत्ति हुई जो अपने आप को चंद्रवंशी क्षत्रिय मानते थे।
चंदेलों की वीरता की धाक पूरे भारत में जम गई। धंगदेव, गंडदेव और विद्याधरदेव जैसे राजाओं ने अपनी कीर्ति को चरम पर पहुंचा दिया। जब महमूद गजनवी की सेनाएं प्रलय के बादलों की तरह भारत भूमि को घेर रहीं थीं तो विद्याधरदेव ने ही उसका रास्ता रोककर उसे लोहे के चने चबवा दिए थे! शैतान का दूसरा रूप गजनवी विद्याधरदेव के साथ शांति समझौता करके पीछे हट गया! तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने उनका वर्णन चंद्र या विदा के नाम से लिखा है। विद्याधर मध्यकालीन भारत के पहले राजा थे जिन्होंने भारतीय राज्यों का महासंघ बनाने की जरूरत बताई थी ताकि विदेशी आक्रमणों का मुंहतोड़ उत्तर दिया जा सके। इसी वंश में आगे जाकर कीर्तिवर्मन नाम के शासक हुए जो अपनी न्यायप्रियता और प्रजा कल्याण के कार्यों के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। विख्यात कवि कृष्णमिश्र के द्वारा लिखित प्रबोध चंद्रोदय नामक नाटक में उनके कार्यों का वर्णन है। आधुनिक युग में भी शिवप्रसाद सिंह द्वारा लिखित नीला चांद नामक उपन्यास चंदेल शासक कीर्तिवर्मन के ऊपर ही आधारित है। इस उपन्यास को बहुत सारे पुरस्कार मिले हैं। महोबा के निकट स्थित कीरत सागर नामक झील कीर्तिवर्मन के द्वारा ही बनवाई गई थी।
चंदेल शासकों में एक विशिष्ट बात थी। उन्होंने शास्त्र और शस्त्रों दोनों को ही पर्याप्त महत्व दिया था। कला, संस्कृति, वैचारिक स्वतंत्रता में वे बहुत बढ़े-चढ़े थे। उन्होंने ऐसे समाज की परिकल्पना की थी जिसमें मानव जीवन के चार चरम पुरुषार्थ धर्म, अर्थ ,काम और मोक्ष सबके लिए सुलभ थे!
आखिर कैसे? आइये, समझते हैं! चंदेल शासकों ने अपने धर्म, धर्मग्रंथों और धार्मिक विश्वासों पर हमेशा गर्व किया। धर्म को शुष्क कर्मकांड न मानकर उन्होंने धार्मिक विधानों को आंतरिक आनंद का कारक माना।उनकी कलाकृतियों में देवी-देवता भी मानवीय पात्रों की तरह दिखाई देते हैं।
चंदेल शासकों की आर्थिक सूझ-बूझ अद्वितीय थी।उन्होंने आर्थिक समृद्धि की नई ऊंचाइयों को हासिल किया। उन्नति और समृद्धि के शिखर पर पहुंचा हुआ राज्य ही सर्वोत्कृष्ट मंदिरों एवं कलाकृतियों का निर्माण करा सकता है। उन्होंने एक ऐसा समाज बनाने की कोशिश की थी जिसमें समाज का हर व्यक्ति सुरक्षित, सुखी और आनंद से भरा हो।
अब एक विशिष्ट बात!उनका मानना था कि मनुष्य को सांसारिक सुखों का भरपूर आनंद लेना चाहिए।जीवन के हर क्षण को खुलकर जीना चाहिए। और इसके साथ ही अगर त्याग और बलिदान का कोई भी मौका सामने आए तो सारे सुखों को एक क्षण में ही पीछे छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए। इस बलिदान को उन्होंने मोक्ष का साधन माना!
आइये, इतिहास से वर्तमान में चलें।
एक सवाल लेते हैं! आखिर इतिहास को जानने की क्या जरूरत है? इन राजाओं के बारे में जानने से क्या होगा?
इन शासकों के बारे में जानना इसलिए बहुत जरूरी है ताकि लोग ये समझ सकें कि खजुराहो के इन विश्वविख्यात मंदिरों का निर्माण कराने वाले ये शासक अव्वल दर्जे के स्वाभिमानी, दूरदर्शी, वीर और राष्ट्र की रक्षा हेतु हमेशा युद्घों में लीन रहनेवाले थे। मैं ऐसा विशेष तौर पर इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि खजुराहो जाने वाले पर्यटकों को अक्सर वहां के राजाओं द्वारा की जानेवाली प्रेम गतिविधियों के नमक-मिर्च लगे किस्से सुनाकर प्रमाण स्वरूप लगे हाथों मंदिरों पर उकेरी गई कुछ मूर्तियां दिखा दी जाती हैं! पर्यटक बेचारे हँसकर, मुस्कुराकर, शरमाकर, खिसियाकर ये सब सुन और समझ लेते हैं।
लेकिन आप सोचिए, क्या ये उचित है? Common sense की बात है कि दुनिया का खराब से खराब शासक भी जनता में अपनी image बनाने के लिए अरबों रुपये खर्च कर डालता है! अपने द्वारा किये गए ऊटपटांग कामों की जनता को भनक भी नहीं लगने देता!फिर चंदेल शासकों को क्या जरूरत थी कि वे ऐसे मंदिर बनवा के छोड़ जाएं जिसके आधार पर उन्हें भोगवादी कहा जा सके!!!
निश्चित रूप से ऐसा बिल्कुल नहीं था। युद्धों, संधियों, यात्राओं और बाधाओं से उन्हें इतनी फुरसत कभी नहीं थी कि अपनी राजधानी में रहकर आनंद से अपना जीवन व्यतीत करें। उनके द्वारा बनाये गए ये स्मारक उनके धार्मिक और सांस्कृतिक विश्वासों पर आधारित थे, जिनपर आज तक हम भारतवासियों ने शोध नहीं किया है!
चंदेल शासकों की सामाजिक-धार्मिक सोच क्या थी, यह बड़ा ही दिलचस्प प्रश्न है। उनके विश्वासों में कई तत्वों की झलक मिलती है । बौद्ध धर्म का वज्रयान! शंकराचार्य का अद्वैत!हिन्दू धर्म में निहित कुंडलिनी जागरण का concept!वास्तव में चंदेल शासकों ने तत्कालीन समाज में प्रचलित हर धार्मिक परंपरा का गहन अध्ययन करके उसे अपने विश्वासों में शामिल किया था! आधुनिक युग में आचार्य रजनीश या osho के चिंतन में भी इन तत्वों की झलक मिलती है!जो भी हो, यह किसी इतिहासकार का विषय है!
यह लेख नीरस तो नहीं हो रहा न! चलिये, अब इन स्मारकों को घूमने चलें।इन्हें 1986 में unesko द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया था।
मैं अपना तरीका और अनुभव बताता हूँ। मेरी मानिए तो इस तरह के ऐतिहासिक स्थलों को उस वक़्त घूमना चाहिए जब बिल्कुल भी भीड़- भाड़ न हो। यहां मंदिरों के तीन समूह हैं। पश्चिमी समूह, पूर्वी समूह और दक्षिणी समूह। इनमें पश्चिमी समूह सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण है। इनमें मैं केवल पश्चिमी समूह ही देख पाया।अतः आपको भी वही दिखा सकूंगा।
अब यहां से आगे का लेख प्रथमपुरुष में अर्थात "मैं" पर आधारित भाषा में लिखा जाएगा!
योग और अध्यात्म पर आधारित एक अंतरराष्ट्रीय conference में अपना शोधपत्र प्रस्तुत करने हेतु मुझे खजुराहो जाने का अवसर प्राप्त हुआ।पहला दिन तो इसी में बीत गया।उस दिन शाम को ही निश्चय किया कि यहां के मंदिरों को सुबह में देखना है। होटल स्टाफ को बता दिया था कि सुबह साढ़े पांच बजे मुझे जगाकर चाय दें। वैसा ही हुआ।
ठीक सात बजे मैंने चालीस रुपये का टिकट लिया और पश्चिमी समूह के अंदर प्रवेश किया! उस समय मेरे अलावा वहां कोई पर्यटक नहीं था! केवल दो चार लोग अपने-अपने में खोए से झाड़ू लगाने का कार्य कर रहे थे! किसी ऐतिहासिक धरोहर को घूमने की यह सबसे आदर्श स्थिति है।
अब यहां से आगे का मेरा अनुभव आप मेरे द्वारा खींची गई तस्वीरों और उनपर लिखी गयी टिप्पणियों के द्वारा जानेंगे।
Also Read ऐतिहासिक राजाओं के कुछ छिपे हुए रहस्य क्या हैं? Here https://hi.letsdiskuss.com/what-are-some-hidden-secrets-of-historical-kings-hi
ReplyDelete