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महाराणा प्रताप की कहानी: जो जानना जरूरी है Maharana Pratap: The story we must know



दोस्तों, विश्वास है, आप सभी अच्छी तरह हैं।कोरोना वायरस ने पिछले दिनों में काफी कोहराम मचा रखा है। यह तबाही कब तक रुकेगी,कहाँ जाकर रुकेगी, कहना मुश्किल है। लेकिन एक बात तो तय है। जीतेगा तो इंसान ही। हाँ, जबतक हम इस लड़ाई में निर्णायक बढ़त नहीं पा लेते, हमें नियम मानने होंगे। social distancing का नियम। hygeine का नियम। और भी नियम। वह सब नियम जो health experts ने हमें बताए हैं।

मानव जाति में एक प्रवृत्ति आदिम काल से ही है।हार न मानने की प्रवृति। इस प्रवृत्ति ने बड़ी बड़ी घटनाओं को जन्म दिया है। जिस व्यक्ति में ये प्रबल होती है,  वह कभी नहीं हारता। वह हार को भी जीत का आधार बना लेता है।

दोस्तों।आइए। आज हम बात करते हैं महाराणा प्रताप के बारे में। एक ऐसा योद्धा, जिसने कभी किसी के सामने घुटने नहीं टेके।हार नहीं मानी। देशहित को सर्वोच्च रखा।अपने आदर्शों से इंच भर भी कभी नहीं डिगा। वह उन गिने चुने शासकों में थे, जिन्होंने परम शक्तिशाली मुगलों की अधीनता कभी स्वीकार नहीं की। कभी मुगल जीत नहीं पाए उनसे।ऐसा था महाराणा प्रताप के बल का प्रताप!

महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास की उन महान विभूतियों में से हैं, जिनके साथ इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया है। उन्हें जितना सम्मान मिला, उससे सौ गुना अधिक मिलना चाहिए था। मुग़ल इतिहासकारों, अंग्रेज़ इतिहासकारों और उनके आधार पर अपनी राय बनानेवाले भारतीय इतिहास के विद्वानों ने मुगल सम्राट अकबर की प्रशंसा में तो चार चांद लगा दिए। लेकिन उस महाराणा प्रताप की प्रशंसा में कंजूसी की हदें पार कर दीं, जिसने अकेले अपने दम पर मुगलों की सत्ता को चुनौती दी।

लेकिन इतिहासकारों की ये कंजूसी आम जनता को नहीं पसंद आई। आम लोगों ने अपनी लोककथाओं, किंवदंतियों और गीतों में सच को पिरोकर इसे अगली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रख लिया। प्रताप लोगों के दिलों में बस गए! उनसे जुड़े तमाम पात्रों जैसे चेतक, भामाशाह, शक्तिसिंह आदि को भी जनता नहीं भूली! आज भारत का शायद ही कोई जिला ऐसा होगा, जहाँ महाराणा प्रताप से जुड़ा कोई स्मारक, चौक, भवन आदि न हो!! ये होती है जनता की याददाश्त!!!जहां वीरता की बात होती है, वहां महाराणा प्रताप को जरूर याद किया जाता है!

आज हम भारत के इसी महानायक की कहानी जानेंगे।लेकिन कुछ अलग अंदाज में।
चलते हैं आज से चार सौ साल पहले के युग में। मुग़ल शासक अकबर की शक्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही थी। मुगलों की सेना भारत के तमाम भू भागों पर अधिकार करती जा रहीं थीं।मुगलों की नीति बड़ी सीधी सी थी। या तो अधीनता मानो या फिर मिट जाओ! या तो सर झुकाओ, नहीं तो सर कटाओ! उस समय के ऐतिहासिक वर्णनों से पता चलता है कि मुगल सेनाएं बहुत बेरहमी और क्रूरता के साथ अपने विरोधियों पर अत्याचार करती थीं।


महाराणा प्रताप के पिता उदयसिंह मेवाड़ के कीर्तिमान शासक थे। प्रताप उनके बड़े लड़के थे। लेकिन उनके पिता ने अपने अन्य पुत्र जगमाल को शासक बनाना चाहा।लेकिन मेवाड़ की जनता और सरदारों ने राजकुमार प्रताप पर भरोसा जताया। प्रताप को सिंहासन लेने की कोई लालसा नहीं थी। लेकिन उन्हें जनता की इच्छा मानते हुए मेवाड़ के सिंहासन पर बैठना पड़ा।


यहां हम एक प्रश्न लेंगे। चलिए मान लेते हैं कि प्रताप जनता में बहुत लोकप्रिय थे, अतः स्वाभाविक था कि जनता उनका समर्थन करती। लेकिन मेवाड़ के सरदारों ने अपने महाराणा उदयसिंह की इच्छा का सम्मान क्यों नहीं किया? क्यों वे राजकुमार प्रताप को ही शासक बनाना चाहते थे?

इसका उत्तर जानने के लिए हमें तत्कालीन भू राजनैतिक geo political परिस्थितियों को देखना होगा। साथ ही राजकुमार प्रताप के व्यक्तित्व पर भी एक नजर डालनी होगी।

सन 1556 में पानीपत का द्वितीय युद्ध हुआ। इसमें अकबर के संरक्षक बैरम खान ने अफगानों को परास्त करके भारत में मुगल शासन एक बार फिर से स्थापित किया।अकबर बादशाह बना। कुछ सालों तक अकबर अपने आप को मजबूत बनाता रहा। इसके बाद उसने पूरे भारत को मुग़ल झंडे के नीचे लाने के लिए अभियान शुरू किए। जहां जरूरत पड़ी वहां वैवाहिक संबंधों का सहारा लेकर अन्य राजाओं को अपने साथ मिला लिया। जहां बलप्रयोग करने की नौबत आई, वहां अकबर ने कोई दया न दिखाते हुए तलवार का सहारा लिया। उत्तर भारत में जल्दी ही अकबर का दबदबा कायम हो गया।
लेकिन अकबर के दिल में मेवाड़ एक कांटे की तरह चुभता ही रहा।


दोस्तों, आप भारत का नक्शा ध्यान से देखिए। मान लीजिए, किसी को दिल्ली, पंजाब, या हरियाणा से गुजरात जाना हो, तो कैसे जाएगा?

इसके लिए सबसे उपयोगी रास्ता आपको मेवाड़ होकर दिखेगा जिस क्षेत्र में आधुनिक राजस्थान के चित्तौड़, राजसमंद, भीलवाड़ा आदि आते हैं। इस क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा जंगल पहाड़ों से सम्पन्न था जिसमें भील जनजातियों के निवास थे।मुगलों के जमाने में मेवाड़ राज्य से होकर ही दिल्ली, पंजाब और हरियाणा के व्यापारिक काफिले  गुजरात से आते जाते थे। अतः मुगल साम्राज्य की आर्थिक स्थिरता एवं समृद्धि के लिए जरूरी था कि इन मार्गों पर मुगलों का नियंत्रण कायम रहे। ऐसा करने के अकबर के पास दो ही उपाय थे। पहला- मेवाड़ को अपना अधीनस्थ राज्य बनाकर उससे मित्रता कर ली जाए।दूसरा- मेवाड़ को युद्ध से जीतकर उसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया जाए।

अकबर ने शुरूआत में प्रथम उपाय किया। उसने चाहा कि मेवाड़ उसे अपना बादशाह मान ले और वहां के महाराणा उसकी छत्रछाया में शासन करें। इस तरह मेवाड़ व्यवहारिक तौर पर तो स्वतंत्र रहता लेकिन सार्वजनिक तौर पर मुगलों के अधीन कहलाया जाता। राजस्थान के अनेक राज्यों ने ऐसी व्यवस्था को स्वीकार भी कर लिया था। वहां के शासकों को मुगल दरबार में ऊंचे पद भी दिए गए थे। आमेर के शासक मानसिंह को अकबर ने अपना सेनापति बना लिया था।

लेकिन अकबर का प्रथम उपाय काम नहीं आया। मेवाड़ की जनता और उसके सरदारों को मुगलों के आगे झुकना कदापि मंजूर नहीं था। जिन मुगलों ने भारत के धर्म एवं संस्कृति को आघात पहुँचाया, लाखों निर्दोष आम नागरिकों को मारा। उनके आगे मेवाड़ की जनता झुकने को तैयार नहीं हुई।
राजकुमार प्रताप का व्यक्तित्व भी मेवाड़ के लोगों को यह विश्वास दिलाता था कि इनके रहते अकबर मेवाड़ को हरा नहीं सकता।

राजकुमार प्रताप अनुशासन प्रिय,साहसी, निडर और अव्वल दर्जे के स्वाभिमानी थे । विद्वानों का सम्मान करने वाले और ऊंच-नीच, जात-पात से ऊपर उठकर आम जनता के लिए कार्य करने वाले थे।प्रताप अपने आप में ही एक सेना के बराबर थे। उनकी शारीरिक ऊंचाई बहुत अधिक थी- सात फ़ीट से भी ज्यादा। उसी अनुपात में उनका वजन भी था। बचपन से ही जंगल पहाड़ों में घूमनेवाले और युद्ध अभ्यास करनेवाले प्रताप अपनी कमर में दो तलवारें बांध कर चलते थे। इन तलवारों का कुल वजन 208 किलो था। हाँ!चौंकिए मत!!  मैंने दो सौ आठ किलो ही लिखा है। इसके अलावा वह युद्ध में 72 किलो का कवच पहनते थे। तलवारों के अलावा वो अक्सर अपने साथ भाला भी रखते थे जिसका वजन 81 किलो था।

दोस्तों, जो योद्धा अपने शरीर पर साढ़े तीन सौ किलो के अस्त्र शस्त्र बांधकर युद्ध में जाया करता था, उसकी शक्ति का अनुमान भी कोई नहीं कर सकता। पूरे राजस्थान में उनकी टक्कर का शक्तिशाली योद्धा कोई दूसरा नहीं था। पूरा मेवाड़ अपने इस पुत्र पर अभिमान करता था।

मेवाड़ के सरदारों को पक्का यकीन था कि उन्हें मुग़लों की अपार शक्ति से जूझना ही होगा। ऐसे में प्रताप जैसा शासक ही मेवाड़ को बचाये रख सकता था। यही कारण था कि उदयसिंह के बाद प्रताप को ही शासक का पद स्वीकार करना पड़ा।

अब महाराणा प्रताप सिंह मेवाड़ के शासक बन चुके थे। सीधा मुकाबला अकबर और उसकी अपार सैन्यशक्ति से था। उनके पड़ोसी राज्य भी मुगलों का ही साथ दे रहे थे।

लेकिन मेवाड़ के इस नए महाराणा की आंखों में एक सपना पल रहा था। वो जानते थे कि अकबर की वास्तविक शक्ति उसकी सेना में नहीं बल्कि अजेय होने की उसकी ख्याति में है।अगर किसी भी तरह अकबर को एक बार भी हरा दिया जाए, तो उसके अजेय होने की ख्याति नष्ट हो जाएगी। इसके बाद भारत के अन्य राजाओं को भी मुगलों के खिलाफ उठ खड़े होने का साहस मिल जाएगा। जिस तरह शेरशाह सूरी ने मुगलों को जीता था, उसी तरह अनेक छोटे राज्य भी एक साथ मिलकर मुगलों से जीत सकते हैं।

अकबर भी कूटनीति में निपुण था। जानता था कि महाराणा प्रताप अगर छापामार युद्ध पर उतर आए तो उन्हें जीता नहीं जा सकेगा। जंगल पहाड़ियों में फैली छोटी सी मेवाड़ सेना भी कई लाख मुगल सैनिकों पर छापामार युद्ध में भारी पड़ेगी। उसे पता था कि जंगल पहाड़ों में रहने वाले धनुष बाण में निपुण भील महाराणा प्रताप के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। उसने भील सरदार राजा पुंजा को अपनी ओर मिलाना चाहा लेकिन मुँह की खाई।इस तरह अकबर इस बात के प्रति निश्चिंत नहीं था कि अंत में मुगल जीत ही जायेंगे!

अकबर ने महाराणा को समझाने के लिए कई लोगों को भेजा।जलाल खान आया। भगवानदास और टोडरमल भी आये। आमेर के राजा मानसिंह भी आये।इनमें सबसे बड़ा नाम मानसिंह का था।सबने अलग अलग लालच दिए। लेकिन प्रताप ने सबको स्पष्ट बता दिया को वो अकबर को अपना स्वामी नहीं स्वीकार करेंगे।

अब दोनों ही पक्ष मरने मिटने को तैयार हो गए। महाराणा ने मुग़ल शासन के विरोधियों को साथ आने का आमंत्रण दिया। लेकिन शायद देर हो चुकी थी। अनेक राजा असमंजस की स्थिति में पड़े रहे। बिहार से अफ़ग़ान सरदार हकीम खान सूरी अपनी सेना लेकर उनके साथ आ मिला।

अब आया 18 जून 1576 का दिन। हल्दी घाटी का युद्ध। इसके बारे में सैंकड़ों किंवदंतियां और लोकगाथाएँ प्रचलित हैं।

सेनाओं की संख्या के बारे में अलग अलग आंकड़े मिलते हैं।लेकिन इतना तय है कि मुगलों की सेना मेवाड़ की सेना से चार गुनी ज्यादा थी। मुगलों के पास तोप और बंदूकें भी अच्छी संख्या में थीं। आसफ खान और मानसिंह जैसे सेनापति इसका नेतृत्व कर रहे थे। मेवाड़ का विद्रोही सामंत शक्तिसिंह भी मुगलों को मेवाड़ के गोपनीय रहस्य बता रहा था।

महाराणा प्रताप समझ गए थे कि मुगल हारेंगे नहीं। अतः उन्होंने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि जैसे भी बने, मुगलों को जीतने ना दिया जाए।उन्होंने एक साहसिक योजना का सहारा लिया।
युद्ध शुरू होते ही मेवाड़ की सेना ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। मुगल तितर बितर हो गए। इसी अफरा तफरी के बीच महाराणा प्रताप अपने घोड़े चेतक को लेकर मुगल सेना के बीचों बीच जा घुसे। निशाना था-मुगल सेनापति मानसिंह। मानसिंह को मारकर ही इस युद्ध में विजयी होने की संभावना बन सकती थी।
जबतक मुगल कुछ समझते। प्रताप ने मानसिंह को ढूंढ निकाला। हाथी पर सवार मुगलों के सेनापति मानसिंह ने सपने में भी इस स्थिति की कल्पना नहीं की थी! चेतक ने अपने  आगे के दोनों पैर हाथी की सूंड पर रख दिये और प्रताप ने मानसिंह को ललकारते हुए अपना प्रसिद्ध भाला फेंका।महावत के बीच में आ जाने से दिशा थोड़ी बदली और मानसिंह बच गया। इस बीच हाथी की सूंढ में छिपी तलवार चेतक के एक पैर को घायल कर चुकी थी।

मानसिंह अपने प्राण बचाकर पीछे हटा। अब महाराणा और उनके मुट्ठी भर सैनिक दुश्मन के हजारों सैनिकों के बीच घिरे थे! यही वो क्षण था! मेवाड़ ने साबित कर दिया कि आज के युद्ध में वह शत्रु को जीतने नहीं देगा। मेवाड़ के सैनिकों ने मुगल फौज को चीरकर अपने महाराणा के चारों ओर एक घेरा बना डाला। एक विश्वासी सरदार ने महाराणा के राजचिन्हों को धारण करके शत्रु को संशय में डाला। इधर चेतक ने अपने तीन पैरों से ही वो दौड़ लगाई, जिसने उसे इतिहास में अमर कर दिया। वह 22 फ़ीट के एक चौड़े नाले को लांघ गया, जिसे पीछे आ रहे मुगल घुड़सवार नहीं लांघ पाए। महाराणा को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर उसने अंतिम सांस ली। कहते हैं, इस बेजुबान जानवर की स्वामिभक्ति देखकर सामंत शक्तिसिंह का भी हृदय ग्लानि से भर उठा और उन्होंने महाराणा से क्षमा याचना की।

चार पांच घंटों में ही युद्ध का फैसला हो गया।हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल हारे तो नहीं।लेकिन जीत भी नहीं सके! महाराणा प्रताप के शौर्य और उनकी युद्धनीति ने मुगल सरदारों के मन में हमेशा के लिए डर पैदा कर दिया।

अकबर ने जब परिणाम सुना तो हाथ मलकर रह गया!छापामार शैली के महारथी प्रताप को पकड़ना या मारना अब असंभव था। जबतक महाराणा जीवित रहे, वह राजस्थान की तरफ से कभी निश्चिंत नहीं हो सका।

महाराणा प्रताप ने अनेक वर्षों तक जंगल की खाक छानी। अनाज न रहने पर घास की रोटियां तक खायीं।लेकिन मुगलों के आगे आत्मसमर्पण नहीं किया।अगर वो चाहते तो अकबर के आगे झुक कर अपना राज्य वापस पा सकते थे। लेकिन मातृभूमि के सम्मान की खातिर प्रताप ने हर कष्ट सहना मंजूर कर लिया।

महाराणा ने सोने का सिंहासन तो गवां दिया था।लेकिन जनता ने उन्हें अपने दिल के सिंहासन पर बिठाया। उनके सहयोगी भामाशाह ने अपने पूर्वजों की सारी संपत्ति उन्हें अर्पित कर दी।इस धन से उन्होंने एक शक्तिशाली सेना संगठित की । 1582 में हुए दिवेर के युद्ध में उन्होंने मुगलों को करारी मात दी। मुगल सेनापति बहलोल खान को उन्होंने तलवार के एक ही वार से घोड़े समेत चीर डाला! मुगलों की हिम्मत पस्त हो गयी।इसके तीन चार सालों के अंदर ही  पूरे मेवाड़ को उन्होंने स्वतंत्र करा लिया।

महाराणा प्रताप के विचार, उनकी सोच, और उनके कार्य समय से कहीं आगे थे।स्वतंत्रता,सम्मान, स्वाभिमान, सहयोगिता और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व पर आधारित उनकी कार्यशैली उन्हें भारत के महान शासकों की पंक्ति में लाकर खड़ा करती है। 1597 ईसवी में भले ही उनका देहांत हो गया लेकिन उनके विचारों ने आगे जाकर असंख्य लोगों को प्रभावित किया।

दोस्तों, आशा है, यह लेख आपको पसंद आएगा।जल्दी ही हम फिर मिलेंगे। आज बस इतना ही। धन्यवाद!








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