दोस्तों, आज हम बात करेंगे शबरी के बारे में। भारतीय संस्कृति का यह एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसकी चर्चा बहुत कम की जाती है।
क्या आपने कभी रामायण की कथा पढ़ी है? इसमें शबरी का जिक्र आता है। वही शबरी जिसके जूठे बेर भगवान राम ने बड़े प्रेम से खाये थे! उसके आश्रम में जाकर उसे सम्मानित किया था। कथा कहती है कि शबरी पहले एक मामूली वनवासी कन्या थी। अनपढ़ थी। घरवालों ने उसे निकाल दिया था। बहुत कठिन संघर्षों के बीच उसने अपना जीवन बिताया।
आइये आज हम उन घटनाओं की चर्चा करेंगे जिन्होंने एक मामूली आदिवासी कन्या को ऐसा सम्मानित स्थान दिलाया जो कि बड़े बड़े ऋषियों के लिए भी दुर्लभ था।
आइये चलते हैं रामायणकालीन भारतवर्ष में। उस समय उत्तर भारत में आर्य राजाओं का शासन था। अयोध्या, मिथिला, कोशल, केकय आदि उनमें प्रसिद्ध थे। विंध्य पर्वत के दक्षिण में वनवासी जातियों के राज्य स्थित थे। इनमें किष्किंधा बहुत शक्तिशाली था। इनके भी सुदूर दक्षिण में उन जातियों का शासन था जो अपने आप को राक्षस कहते थे। आयों और इनके बीच प्रबल शत्रुता थी।
वनवासी कबीलों के छोटे छोटे राज्य आर्यों और राक्षसों के बीच एक सीमा रेखा या buffer zone के रूप में स्थित थे। कभी इनपर आर्य अधिकार कर लेते तो कभी राक्षस! जब जिसका शासन होता, वैसी ही संस्कृति का पालन इन्हें करना पड़ता। आर्य संस्कृति के प्रभाव से इनमें नदियों एवं प्रकृति की पूजा प्रचलित हुयी। वहीं राक्षस संस्कृति के प्रभाव से पशुबलि, नरबलि, बालविवाह आदि परंपराएं आ गईं।
शबरी इन्हीं वनवासी कबीलों में जन्मी थी। उसके पिता इसके राजा थे। युद्ध और हिंसा के बीच पली बढ़ी शबरी को आर्य संस्कृति पसंद थी। उसके अंदर जीवों के प्रति करुणा थी। उसके हृदय की संवेदना उसे विशिष्ट बनाती थी। जैसी कि प्रथा थी, उसका विवाह बचपन में ही तय हो गया। विवाह के दिन बहुत सारे हरिण, खरगोश, तीतर, कबूतर आदि जीव लाये गए। इनको मारकर तरह तरह के मांस बनने थे।
कथा कहती है कि इस घटना ने शबरी के विद्रोह को जन्म दिया! उसे यह मंजूर नहीं था कि उसके विवाह में इतने सारे निरपराध जीव मारे जाएं। उसने विवाह से मना कर दिया। समाज के ठेकेदारों पर सवाल उठाए।
समाज ने तीव्र प्रतिक्रिया दिखाई। शबरी का सामाजिक बहिष्कार किया गया। यह तय हुआ कि कोई उसे शरण नही देगा। जो भी देगा, उसे पूरे वनवासी समाज का क्रोध झेलना होगा। दोस्तों, यह एक ऐसी सजा थी जो उस समय केवल उच्चतम अपराधियों को ही दी जाती थी।
शबरी अनेक राज्यों में गयी। उसे शरण नहीं मिली। वह अनेक ऋषियों के आश्रमों में भी गयी। लेकिन ऋषियों ने भी मना कर दिया। वो भी शबरी को शरण देने में असमर्थ थे।
दोस्तों, यहां एक बात ध्यान देने की है। ऋषि वर्ग तो अत्यंत शक्तिशाली था। फिर वो क्यों शरण नहीं दे पाया?
दरअसल इसके पीछे कारण था। किसी भी ऋषि के आश्रम में प्रवेश पाने के लिए जरूरी था कि व्यक्ति कुलीन हो। मतलब अच्छे परिवार से हो। अगर ऐसा न हो तो फिर उसे आश्रम की प्रवेश परीक्षा पास करनी होती थी। राजा के द्वारा दंडित, दिवालिया, पागल और समाज से बहिष्कृत लोगों को आश्रम में प्रवेश नहीं दिया जा सकता था।
ऋषिवर्ग ने एक बीच का रास्ता निकाला। महर्षि मतंग ने शबरी को गोद ले लिया। वनवासी समाज ने भी इसे मान लिया। यह तय हुआ कि शबरी महर्षि मतंग के आश्रम से काफी दूर वन में रहेगी। वह दिन में आश्रम में जाकर अध्ययन और बाकी कार्य कर सकेगी। इसके बाद उसे अपनी कुटिया में आना होगा। आश्रम निवासियों के अलावा वह किसी और से संपर्क नहीं रख सकेगी। इस तरह दोनों कार्य पूरे हो गए। सामाजिक बहिष्कार भी अपनी जगह कायम रहा। और शबरी का ऋषि मतंग के आश्रम में प्रवेश भी हो गया।
महर्षि मतंग एक अनूठे ऋषि थे। मतंग का अर्थ होता है मतवाला व्यक्ति। बहुत जल्दी भावावेश में आ जाते थे जिसकी वजह से लोग उन्हें मतंग कहा करते थे।वह शक्ति के आराधक थे। उन्होंने शबरी को भक्तियोग की शिक्षा दी।
यहां थोड़ा सा रुकते हैं। कुछ योग की बात करते हैं। ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग का उल्लेख गीता में किया गया है। इन तीनों में भावुक लोगों के लिए भक्तियोग recommend किया गया है। जो इंसान करुणाशील है, भावुक है उसके लिए भक्तियोग ही उचित माना गया है। इसके लाभ बाकी योगों के बराबर ही मिलते हैं। यही कारण है कि महर्षि मतंग ने शबरी को भक्तियोग की ही शिक्षा दी।
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की जनजातियों में चली आ रही दंतकथाएँ बताती हैं कि शबरी का जीवन एक आदर्श जीवन बन गया।
महर्षि मतंग ने अपने अंतिम समय में शबरी को एक वरदान दिया। उन्होंने कहा कि भगवान खुद आएंगे और शबरी से मिलेंगे।
वृद्धावस्था आने तक शबरी की ख्याति फैल चुकी थी। वह आश्रम में सबसे पहले उठती। यज्ञ के लिए लकड़ियां एवं फूल लाती। साफ सफाई करती। सूर्योदय से सूर्यास्त तक आश्रमवासियों की सहायता करती। लेकिन उसे एक कार्य की मनाही थी।वह आश्रम के पास स्थित सरोवर से पानी नहीं ला सकती थी। ये नियम शुरू से ही लागू था।
समय के साथ बहिष्कार के नियम शिथिल हो गए। युवा पीढ़ी ने महसूस किया कि उसके साथ गलत हुआ। उसे सम्मान सहित आश्रम में स्थान दिया गया और दैनिक परिश्रम से मुक्ति दी गयी। अब उसका एक ही कार्य था। सुबह सुबह वन में जाकर बेर तोड़कर लाती। हर दिन भगवान की राह देखती। हर समय भगवान का ध्यान करने के कारण उसमें प्रचंड आध्यात्मिक प्रतिभा आ चुकी थी। उनकी बातें लोगों के हृदय पर असर करती थीं। यहां तक कि जिस सरोवर से शबरी को पानी लेने से मना किया गया था, सबने उस सरोवर को त्याग दिया। उसपर काई जम गई।
शबरी की प्रतीक्षा पूरी हुई जब राम आकर मिले। मतंग ऋषि का वरदान सत्य हुआ।उस समय उस भावुक हृदय की क्या मनोदशा रही होगी, इसका अनुमान लगाना शायद असंभव है। मतंग ने उसकी साधना को आरम्भ कराया था। भगवान राम ने आकर भक्तियोग की इस साधना को पूर्ण करा दिया। भक्ति योग की चरम सीमा ईश्वर साक्षात्कार और समाधि है। शबरी ने उसे पा लिया।
आश्रम वासियों ने राम का आतिथ्य करना चाहा। शबरी ने अपने हाथों से बेर खिलाने शुरू किए। लेकिन यहां एक परेशानी थी। वृद्धावस्था में ठीक से दिखता नहीं था। ऊपर से आंखें राम पर ही केंद्रित थीं। अतः वह पहले बेर खाकर चखती। मीठा होने पर फिर राम को खिलाती! राम ने बड़े प्रेम से ये बेर खाये।ये प्रसंग हमेशा के लिए अमर हो गया। ऐसे उदाहरण पूरे इतिहास में गिने चुने हैं जब भक्त ने भगवान को अपने हाथों से कुछ खिलाया हो।
कथा बताती है । राम शबरी के साथ उस सरोवर तक गए जिसका परित्याग हुआ था। शबरी ने उस जल का स्पर्श किया। आश्रमवासियों ने देखते ही देखते सारी काई हटाकर जल को फिर से निर्मल बना दिया। भगवान राम सहित पूरे वनवासी समाज ने शबरी की भक्ति और समर्पण के आगे सर झुकाया। अब उसका स्थान उन महान व्यक्तित्वों में था जो हर देश काल में जीवित रहकर दूसरों को प्रेरणा देते रहते हैं।
आशा है, ये लेख आपको पसंद आया होगा। आगे भी हम ऐसे व्यक्तित्वों की चर्चा करते रहेंगे। आपकी अपनी वेबसाइट ashtyaam. com की ओर से शुभकामनाएं।
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