दोस्तों, विश्वास है आप सभी स्वस्थ और सानंद हैं।
कुछ दिन पहले मुझे अयोध्या जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हिन्दू धर्म में सात नगरों को सबसे अधिक पवित्र और महत्वपूर्ण कहा गया है। इनमें अयोध्या प्रथम स्थान पर आता है।इसे तीर्थरूपी विष्णु का मस्तक कहा गया है! श्रीरामचन्द्रजी का यह नगर आदिकाल से ही भारतीयों की आस्था का केंद्र रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तथा गुजरात से अरुणाचल तक के लोग यहां आकर पुण्यलाभ करते हैं। जो भी दिल में श्रद्धा लेकर यहां आता है, वह रामजी का ही हो जाता है! यहां के वातावरण में व्याप्त रामभक्ति की तरंगें उसके सारे कष्टों को दूर करके उसमें नई ऊर्जा भर देती हैं।
मित्रों, आज हम इसी परम पावन अयोध्या नगरी के इतिहास को अच्छे से जानेंगे। एक समय यह नगर भारत की समृद्धि, सभ्यता और ज्ञान का केंद्र था। इसके बाद इसपर एक के बाद एक आक्रमण हुए और यह कमजोर होता गया। एक दिन वह भी आया जब इस नगर को नष्ट कर दिया गया।सैकडों सालों तक यह विलुप्त रहा! फिर सम्राट विक्रमादित्य ने इस नगर को ढूंढकर इसे फिर से बसाया। इसके बाद भी इसने काफी उतार चढ़ाव देखे। बार बार मिटता और बनता रहा। गुलामवंश और मुगलवंश के दौरान तो हद ही हो गयी!जब भी शासकों का दिल करता, यहां आकर खूब ऊधम मचाते! शैतानियां करते! लाखों निर्दोष लोग उनके अनगिनत हमलों में मार दिए गए।
मुगलों के पतन के बाद इस क्षेत्र की सत्ता लखनऊ और जौनपुर के शिया शासकों के हाथ में आई जो हिन्दू संस्कृति के प्रति काफी उदार थे। मराठों का भी यहां प्रभाव बढ़ा जो तन, मन, धन से हिन्दू स्वाभिमान के पुनर्निर्माण के कार्य में जुटे थे। इसके बाद ध्वस्त हुए मंदिर बनने शुरू हुए। वर्तमान अयोध्या इस तरह अस्तित्व में आई।
आइये, कुछ और विस्तार में समझते हैं।
हिन्दू ग्रंथों में वैवस्वत मनु का जिक्र है। वे सबसे पहले शासक थे। इक्ष्वाकु उनके योग्य पुत्र थे। वैवस्वत ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु के लिए अयोध्या का निर्माण कराया। इक्ष्वाकु अयोध्या को अपनी राजधानी बनाकर राज्य करने लगे।
वाल्मीकि रामायण में हमें अयोध्या का वर्णन मिलता है।यह बारह योजन लंबी और तीन योजन चौड़ी नगरी सरयू नदी के किनारे बसी थी। इसके चारों ओर बहुत ऊंची दीवारें बनीं थीं जिनके ऊपर विशालकाय शतघ्नियाँ सैकड़ों की संख्या में रखी रहतीं थी। शतघ्नी से पत्थरों के टुकड़े एवं आग के गोले शत्रु सेना पर फेंके जा सकते थे।
एक विशेषता और थी! नगर के चारों ओर विशाल खाइयाँ थीं जिनमें सरयू का पानी भरा रहता था। वाल्मीकि ने इसे दुर्गगम्भीर परिखा कहा है। प्रख्यात विद्वान रामानुजाचार्य लिखते हैं-" जलदुर्गेना गंभीरा अगाधा यस्यां परिखा" इसका अर्थ यह है कि यह नगर चारों तरफ सरयू के अगाध पानी एवं प्रबल प्रवाह से घिरा हुआ एक जलदुर्ग था !
दोस्तों, जो लोग सरयू के विशाल प्रवाह से अपने चारों ओर जलदुर्ग बना सकते हों, उनकी ताकत और तकनीकी प्रगति का अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं!
वाल्मीकि रामायण की एक दो बातें और जानिए! इसमें इस नगर को 'धुपगन्धानुवासित' कहा गया है जहां हर दिन सड़कों पर सुगंधित जल एवं पुष्पों का छिड़काव होता था। यहां के लोग बड़े उदार एवं ज्ञान संस्कृति में रुचि वाले थे। यहां विद्वानों के ज्ञानकेन्द्र, व्यापारियों की दुकानें, गणिकाओं के नाट्यकेन्द्र, नगर की स्त्रियों के लिए मनोरंजन एवं कला के केंद्र आदि वह सारी चीजें थीं जो किसी महान राज्य की राजधानी में चाहिए।
एक बात और। यहां के आदर्श समाज में अपराध शायद ही कभी होता था!मनुस्मृति पर आधारित यहां का दंड विधान ऐसा कठोर था कि अपराधियों की रूह कांप जाती थी!
मित्रों, कनिंघम और वेबर जैसे अंग्रेज़ विद्वानों ने भारतीय धर्मग्रंथों में लिखे इन वर्णनों को कपोल कल्पना कहा है! उनके अनुसार अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय जंगली और गंवार थे! यह बात यहां दुख से लिख रहा हूँ कि अनेक भारतीय विद्वान भी इन अंग्रेज़ विद्वानों से सहमति रखते हैं! अब यह फैसला आपके ऊपर छोड़ता हूँ कि ये लोग सही हैं या वाल्मीकि और कालिदास जैसे हमारे पूर्वज सही थे!
प्रसिद्ध जैन संत धनपाल ने अपने ग्रंथ तिलकमंजरी में अयोध्या को देवलोक से भी अधिक सुंदर और पूरे उत्तर भारत का सबसे रमणीय नगर बताया है ! अन्हिलवाड़ के प्रतापी राजा कुमारपाल के गुरु हेमचंद्राचार्य ने अपने ग्रंथ में इसे धन धान्य का अक्षय भंडार और कुबेर द्वारा निर्मित अलौकिक नगर बताया है!
बौद्ध मान्यताओं के अनुसार भगवान बुद्ध भी लंबे समय तक अयोध्या में रहे थे।उनसे संबंधित कई स्थान अभी भी मौजूद हैं।
अब एक दिलचस्प बात! जैन धर्म के प्रामाणिक ग्रंथ आदिपुराण में कहा गया है कि अयोध्या के हर भवन की छत पर झंडे लगे थे जो हवा चलने पर एक साथ फहराते थे! है न अनूठी बात!!!
इक्ष्वाकु के शासन से शुरू हुआ अयोध्या का गौरव दिनोंदिन बढ़ता रहा!श्रीरामचन्द्रजी के समय इसकी शक्ति और समृद्धि शिखर पर पहुंची। इसके बाद भी हजारों साल इस नगर ने प्रभुत्व कायम रखा!
महाभारत के युद्ध में अयोध्या के शासक बृह्दल मारे गए। इसके बाद इसका पतन शुरू हो गया। मगध, अवंति, वज्जि आदि की उन्नति के बीच यह नगर मानों खो गया! कई सौ सालों तक खोया ही रहा!
आज से करीब इक्कीस सौ साल पहले विक्रमादित्य ने इस क्षेत्र को बौद्ध शासक से जीत लिया। अयोध्या का जीर्णोद्धार कराया। सारे मंदिर फिर से बनाये गए। विक्रमादित्य ने यहां भारत का सबसे बड़ा और भव्य राममंदिर बनवाया।
विक्रमादित्य के द्वारा पुनर्निमित अयोध्या अगले बारह तेरह सौ सालों तक शांत, समृद्ध और ज्ञान का केंद्र बनी रही।
दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान की पराजय के साथ ही उत्तर भारत के धार्मिक केंद्र फिर एक बार खतरे में आ गए!महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार ने इस क्षेत्र में छलपूर्वक हमला किया और तबाही मचाई। अयोध्या की रक्षा के लिए लाखों लोगों ने अपने बलिदान दिए और इसे बचा लिया। अयोध्या पर आक्रमण करने का प्रतिशोध सैयद सालार से बहराइच के भीषण युद्ध में उसे मारकर चुकाया गया।
इसके बाद अयोध्या ने बहुत आक्रमण झेले।लेकिन इसके मंदिर और मठ सुरक्षित बने रहे। जब भी हमला होता, हजारों लोग जान हथेली पर लेकर आ जाते! अपना बलिदान देकर अपने गर्व की रक्षा करते!
लेकिन असली पतन तो अभी बाकी था! सन 1528 में बाबर की सेना ने प्रलय के बादलों की तरह यहां घेरा डाल दिया। हर बार की तरह इस बार भी हजारों गांवों से आम लोग अयोध्या आ पहुंचे! लक्ष्य एक ही था- प्राण देकर भी अपना मान बचाना है!
मित्रों, अब थोड़ा रुकिए। दोनों पक्षों को देखिए। एक तरफ बाबर की सेना थी । उसका हर सैनिक तपा तपाया प्रशिक्षित योद्धा था जो तलवार के एक वार से ही घोड़े को भी काट सकता था!उनके पास तोपखाना था! छल-कपट, क्रूरता और कूटनीति में बाबर के सेनापतियों का कोई सानी नहीं था!
दूसरी तरफ अवध के आम लोग थे।संसाधनों से कम लेकिन जोश से भरपूर! विद्यार्थियों, साधुओं, किसानों, लोहारों, पासियों, शिक्षकों सहित समाज के सभी वर्ग के लोगों से मिलकर ये सेना बनी थी! हर किसी के दिल में एक ही संकल्प था कि हजारों सालों से विद्यमान अपने इस गौरव को मिटने नहीं देना है!
मित्रों, आज भी अवध क्षेत्र की अनेक लोककथाओं, किंवदंतियों में उस पराक्रम का वर्णन मिलता है जो आम लोगों ने बाबरी सेना के खिलाफ दिखाया था!अगर उस समय उन्हें गुरु गोविंदसिंह ,शिवाजी या छत्रसाल जैसे नेता मिल गए होते तो यकीन मानिए मीर बाकी और बाबर की समाधि शायद अयोध्या में ही बन गयी होती!
बाबर की फौज और जनसेना में भयानक युद्ध हुआ।बाबरी फौज ने छल और बल दोनों प्रयोग किये।बाबर के सेनापतियों ने इस बात को सुनिश्चित किया कि अयोध्या में कहीं बाहर से सहायता न पहुंच सके।इतिहास में पहली बार अयोध्या ने वो अन्धकारयुग देखा जिसकी मिसाल नहीं मिलती। काशी और मथुरा की तरह अयोध्या के वेदपाठी विद्वानों और ब्राम्हणों के गले में रस्सा बांधकर पशुओं की भांति उन्हें ईरान, काबुल और समरकंद के बाजारों में बेचा गया।महिलाओं और बच्चों पर असंख्य अत्याचार हुए। सम्राट विक्रमादित्य द्वारा हजारों साल पहले बनवाया गया श्रीराममंदिर ध्वस्त कर दिया गया।
सम्राट अकबर के शासन काल में कुछ मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ।औरंगजेब के शासन में फिर से मंदिर तोड़े गए।
मुगलों के कमजोर पड़ने के बाद अवध में नबाबों का शासन आया।उन्होंने उदार नीति अपनाई।नवाब सफदरजंग के दीवान नवलराय ने नागेश्वर नाथ के प्रसिद्ध मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।नवाब आसिफुद्दौला के दीवान राजा टिकैतराय ने बहुत सारे साधु सन्यासियों को आश्रय दिया। नवाब वाजिद अली शाह ने भी अनेक मंदिरों के निर्माण में सहयोग दिया।
भारत के बहुत सारे राजाओं ने तन,मन और धन से अयोध्या के मठों और मंदिरों को बनवाने हेतु अनुदान दिए। आम जनता भी पीछे नहीं रही। इस तरह धीरे धीरे उस अयोध्या का निर्माण होता गया, जिसे हमलोग आज देखते हैं!
अंत में एक महत्वपूर्ण बात। अवध में हर जगह आपको 'जय रामजी की' ही सुनने को मिलेगा! बाबर और मीर बाकी भले ही तीसमारखाँ रहे हों, लेकिन आम जनता की स्मृति में उनकी कीमत लुटेरे से ज्यादा कुछ नहीं। इसका मतलब? इससे ये पता चलता है कि लोकआस्था को कभी हराया नहीं जा सकता! यह जान देकर भी आन को कायम रखती है!
दोस्तों, यह लेख काफी लंबा हो रहा है।अतः यहीं छोड़ता हूँ। अगले लेख में अयोध्या की अपनी यात्रा का वर्णन करूँगा।आपलोगों के प्रेम और स्नेह के लिए आभार!
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