दोस्तों, आज हम श्रीरामचरितमानस पर अपनी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।
कहते हैं, रामकथा में मानव की सारी समस्याओं के समाधान छिपे हैं। महात्मा गांधी सहित अनेक भारतीय और विदेशी महापुरुषों, विद्वानों तथा विचारकों ने रामराज्य की अवधारणा को प्रशासन का सर्वोत्तम रूप माना है जो रामकथा में वर्णित सिद्धान्तों पर आधारित है।
रामकथा में एक महत्वपूर्ण पात्र है जटायु। वृद्ध लेकिन बलशाली। पद से राजा लेकिन मन से संन्यासी! अधर्म का विरोध करते हुए अपने प्राण देनेवाला कर्मयोगी!
जटायु का जन्म एक विख्यात वंश में हुआ था। उनके पिता अरुण भगवान सूर्य के सारथी थे। शिक्षा पूरी होने के बाद उन्हें पंचवटी एवं नासिक क्षेत्र में निवास करने वाली एक जनजाति का अधिपति बनाया गया जिसका प्रतीक चिन्ह गिद्ध था। इस कारण से उन्हें गिद्धराज जटायु भी कहा जाता है।
दोस्तों, यहाँ एक सवाल लेते हैं। फिल्मों और धारावाहिकों में तो जटायु को पक्षी दिखाया गया है!उन्हें गिद्ध बताया गया है। तो क्या जटायु एक पक्षी थे?
नहीं दोस्तों, बिल्कुल नहीं। यह एक भ्रम मात्र है। वास्तव में जटायु एक जनजातीय राजा थे। उनका प्रतीक चिन्ह गिद्ध था। जिस तरह हम ऑस्ट्रेलिया के लोगों को कंगारू कह बैठते हैं, उसी तरह तत्कालीन लोग उस जनजाति के लोगों को गिद्ध कहा करते थे!गिद्धराज जटायु उन्हीं के शासक थे। यह जाति राक्षसों से शत्रुता रखती थी।
जब भगवान राम वनवास में थे तो महर्षि अगस्त्य ने उन्हें पंचवटी जाने का परामर्श दिया। पंचवटी में रामजी की भेंट जटायु से हुई। श्रीराम के पिता सम्राट दशरथ और गिद्धराज जटायु आपस में बहुत गहरे मित्र थे। इस नाते जटायु ने श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी को एक पिता की तरह स्नेह दिया। राम और लक्ष्मण के बाहर जाने पर उनके आश्रम की सुरक्षा का भार जटायु के ही जिम्मे था।
अब एक सवाल लेते हैं।
महाराज दशरथ और जटायु की मित्रता कैसे हुयी?
इसका उत्तर हमें भावार्थ रामायण में मिलता है। एक बार दशरथ देवासुर संग्राम में इंद्र की सहायता के लिए गए। जटायू भी उस युद्ध में थे। उस भीषण युद्ध में नमुचि नामक राक्षस दशरथ पर भारी पड़ने लगा। उनके प्राण संकट में पड़ गए। एन मौके पर जटायु आ गए। उन्होंने नमुचि के सर पर प्रहार किया। नमुचि का ध्यान भटका। इतने में ही दशरथ ने उसका सर उड़ा दिया! इस घटना के बाद दशरथ और जटायु गहरे मित्र बन गए।
दशरथ की मृत्यु के बाद भी जटायु की मित्रता बनी रही। राम लक्ष्मण को उन्होंने पुत्रों की तरह ही स्नेह किया।
पंचवटी के जनजातीय क्षेत्र में राम की बढ़ती लोकप्रियता जल्दी ही राक्षसों की ईर्ष्या का केंद्र बन गयी। जनजातियों पर श्रीराम का बढ़ता प्रभाव उन्हें खतरे की घंटी प्रतीत हुआ।
दोस्तों, अब थोड़ा रुकते हैं। एक सवाल लेते है। राम के पंचवटी क्षेत्र में रहने से राक्षसों को खतरा क्यों लग रहा था?
इसका उत्तर बड़ा ही सरल है। श्रीराम वनवास में होते हुए भी अयोध्या के सम्राट थे। याद करिये, श्रीभरत जी उनकी चरण पादुकाओं को राजसिंहासन पर रखकर श्रीराम के नाम से ही अयोध्या का शासन कर रहे थे। राम की लोकप्रियता और जटायु के उनके प्रति स्नेह से यह जनजातियां तेजी से आर्य संस्कृति के प्रभाव में आ रहीं थीं। राक्षसों के सशंकित होने के लिए इतना ही काफी था!
श्रीराम से अनेक बार पराजित होने के बाद राक्षसों ने अपनी नीति बदली। इस बार खुद राक्षसराज रावण आगे आया। सीताजी का हरण करने की योजना बनाई! वह कामयाब भी रहा।
दोस्तों, सीताजी का हरण किन परिस्थितियों में हुआ इसकी संक्षिप्त चर्चा इस वेबसाइट पर हम पहले के लेखों में कर चुके हैं।यह प्रसंग बहुत ही गूढ़ है, जिसे हम आगे के किसी लेख में विस्तृत रूप से समझेंगे।
अभी हम सीता हरण के बाद शुरू हुए घंटनाक्रम पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
जब सीताजी का हरण हुआ तो सबसे पहले जटायु को इसका पता चला। लक्ष्मण के सहयोग से उसने आश्रम की बहुस्तरीय अभेद्य सुरक्षा व्यवस्था बनाई थी। इसे लक्ष्मणरेखा भी कहते थे जिसे पार करना शत्रु के लिए असंभव था। लेकिन श्रीराम, लक्ष्मण और जटायु की अनुपस्थिति में रावण ने छल द्वारा सीताजी को इस सुरक्षा घेरे से बाहर बुलाकर उनका हरण कर लिया!
जटायु ने थोड़ी देर में ही रावण का रास्ता रोक लिया! वो चाहते तो श्रीराम को खबर देने जा सकते थे। लेकिन उन्होंने संघर्ष और बलिदान के विकल्प को चुना। वो बलशाली लेकिन वृद्ध थे। रावण के साथ लड़ने का परिणाम मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
यहां कुछ क्षण रुकते हैं। जटायु के मन में चल रहे विचारों को देखते हैं। उनकी आँखों के सामने एक स्त्री पर अत्याचार हो रहा था। अत्याचार करने वाला बहुत शक्तिशाली था। दूसरी तरफ जटायु एक ऐसे वृद्ध थे जो अपने जीवन के अंतिम वर्षों में थे।उनकी हार तय थी! ऐसी दशा में अच्छे योद्धा भी मैदान छोड़ देते हैं।
लेकिन जटायु पीठ दिखाकर नहीं भागे। जी तोड़कर लड़े! दशरथ की दोस्ती और राम के स्नेह का बदला अपने रक्त की बूंदों से चुकाया। रावण के साथ उन्होंने घनघोर मल्लयुद्ध किया! वो संघर्ष को लंबा खींचना चाहते थे ताकि उनके लोगों को वहां आने का समय मिल सके। लेकिन रावण समझ गया। फिर छल का सहारा लिया। तलवार निकाली। जटायु के हाथ पैर काट डाले। अब जटायु असहाय थे! लेकिन इस स्थिति में भी उन्होंने एक बहुत बड़ी बुद्धिमानी दिखाई। अथाह दर्द को सहन करते हुए भी मृत की तरह पड़े रहे। रावण चला गया।
जटायु अपनी इच्छाशक्ति से अपने प्राण रोके हुए थे ताकि वे किसी को ये बता सकें कि सीताजी का हरण करके रावण उन्हें दक्षिण दिशा में ले गया है। बिना इस जानकारी के कोई भी सीताजी को ढूंढ नहीं पाता।
जल्दी ही लोग आ गए। श्रीराम भी आये। जटायु ने उन्हें सीता हरण की सूचना दी। काम पूरा हुआ। आगे का वार्तालाप शब्दों से नहीं बल्कि आंखों और उनमें भर आये आँसुओं ने किया! श्रीराम ने उनका सर अपनी गोद में रख लिया! जटायु ने बड़े संतोष के साथ अपनी आँखें बंद कर लीं। वो मरकर भी अमर हो गए! जो सौभाग्य अंत समय में दशरथ को भी नहीं मिला था, वह जटायु ने पाया!
दोस्तों, यह अटल सत्य है कि भगवान के भक्तों की कीर्ति हमेशा जीवित रहती है। छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य क्षेत्र में आज भी जटायु का एक मंदिर है जो जनजातीय लोगों की आस्था का केंद्र है। आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में भी जटायु को समर्पित एक मंदिर है। जब भी कहीं रामकथा होती है वहां जटायु का स्मरण जरूर होता है!
दोस्तों, आज बस यहीं तक। महापुरुषों का स्मरण हम आगे भी इसी तरह करते रहेंगे। आपकी अपनी वेबसाइट www. ashtyaam. com को इसी तरह आपका प्यार मिलता रहे, यही मंगलकामना है। धन्यवाद!
अतिसुन्दर लेख सर
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