सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्व आश्रम में मौजूद मंदिर |
दोस्तों, आज हम बात करेंगे सम्राट भरत की।उन महान शासक के बारे में जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत रखा गया।
सम्राट भरत ने अलग अलग फैले आर्यावर्त के कबीलों को एक सूत्र में बांधकर एक सार्वभौमिक राष्ट्र बनाया। आम आदमी के उत्थान पर केंद्रित नीतियां बनायीं। यह मर्यादा बनाई कि राजा ईश्वर का एक प्रतिनिधि है जिसका कार्य जनता की सुरक्षा और उसका विकास करना है।चक्रवर्ती सम्राट भरत का साम्राज्य हिमालय से लेकर समुद्र के बीच फैला था। यहां की संतानों को भारती अथवा भारतीय कहे जाने की परंपरा तभी से शुरू हुई, जो आज भी जारी है।
भारत के इस महान चक्रवर्ती सम्राट का जन्म कण्वाश्रम में हुआ था। उनका लालन पालन महान ऋषि कण्व के सान्निध्य में हुआ। कण्व ऋषि के इस आश्रम का वर्णन स्कन्द पुराण एवं महाकवि कालिदास की रचनाओं में विस्तृत रूप से आता है।
आज हम इसी पावन स्थली कण्व आश्रम की चर्चा करेंगे जहां जाना हर भारतीय के लिए गर्व का विषय होना चाहिए।
लेकिन वहां जाकर मुझे जो दिखा, एक भारतीय के तौर पर हम सभी को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है।
शुरुआत करते हैं एक कहानी से। पता नहीं सच है या काल्पनिक। जैसी सुनी , वैसे ही आप भी सुनिए!
बात उन दिनों की है जब हमारा देश आजाद हुए थोड़े दिन ही हुए थे। हमारे प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू जी एक सरकारी यात्रा पर रूस गए।उनके सम्मान में वहां कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया था। उन्हीं में से एक कार्यक्रम में आभिज्ञान शाकुंतलम नाटक का मंचन किया जा रहा था।
आइये, थोड़ा रुकते हैं। आभिज्ञान शाकुंतलम नाटक के बारे में जान लेते हैं। यह नाटक महान कवि कालिदास के द्वारा लिखा गया है। विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं। यह नाटक जिस देश में भी खेला गया, अत्यंत लोकप्रिय या superhit रहा।
" इसकी कहानी क्या है?"
इसकी कहानी बड़ी मनमोहक है। एक राजा थे। नाम था दुष्यंत।उत्तर आर्यावर्त के प्रबल शक्तिशाली सम्राट। बहुत पराक्रमी थे। एक बार निकले शिकार खेलने। यह उनका प्रिय खेल था। इसी दौरान वह रास्ता भटक गए। जा पहुंचे महर्षि कण्व के आश्रम के पास।
महर्षि कण्व का डंका उस समय पूरे भारत में बजता था। उनके आश्रम में दस हजार से ज्यादा विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। हजारों ऋषि यहां रहकर ज्ञान- विज्ञान के विषयों पर शोध करते थे। तेज वेग से बहती मालिनी नदी के किनारे पर स्थित उनका ये आश्रम घनघोर जंगलों से घिरा था। जगह जगह फैले वनतुलसी के उपवन और हर तरफ से सुनाई देती शास्त्रों के पठन- पाठन की ध्वनियों से यह आश्रम गुलजार रहता था। आर्यावर्त के तमाम शासक और बड़े व्यापारीगण इस आश्रम को अनुदान देकर एवं यहां आकर सम्मानित महसूस करते थे।
महर्षि कण्व बड़े स्वाभिमानी और अनुशासन प्रिय थे। नियमों का उल्लंघन करने वाले को कड़ी सज़ा देने का उनका स्वभाव था। उनकी एक ही कमजोरी थी! शकुंतला। उनकी गोद ली हुई पुत्री, जिसे उन्होंने जंगल में रोते हुए पाया था। महर्षि ने बड़े लाड़ प्यार से उसे पाला।
शकुंतला का रूप- सौंदर्य अप्सराओं से भी बढ़कर था। उससे भी अधिक थी उसकी विद्वता। महर्षि कण्व की अनुपस्थिति में वही आश्रम के कुलपति या अध्यक्ष का कार्य करती थी।
अब वापस आते हैं दुष्यंत के पास। कण्व आश्रम के पास आकर दुष्यंत बड़े तनाव में आ गए। वो जानते थे कि किसी ऋषि या महर्षि के आश्रम के पास शिकार खेलना या सेना लेकर आना एक दंडनीय अपराध था। लेकिन ये गलती उनसे अनजाने में हो चुकी थी!अब दंड भोगना अनिवार्य था।
लेकिन दुष्यंत का भाग्य अच्छा था! महर्षि कण्व आश्रम से बाहर गए थे! उनकी अनुपस्थिति में शकुंतला आश्रम का कार्यभार देख रही थी।
क्षमायाचना हेतु दुष्यंत कण्व आश्रम के कुलपति के पास गए। वहां उनकी मुलाकात हुई शकुंतला से!
दोस्तों, दुष्यंत और शकुंतला के बीच क्या हुआ, इसका वर्णन करने में कालिदास ने अपनी सर्वोच्च साहित्यिक प्रतिभा दिखाई है। शेक्सपियर, मिल्टन, दांते जैसे विख्यात पश्चिमी साहित्यकार भी उनके आगे बच्चे दिखाई देते हैं। अंग्रेज़ साहित्यकारों को यह बात हजम ही नहीं हुई कि कोई भारतीय कवि इंगलैंड के गौरव शेक्सपियर को भी मात दे सकता है!उन्होंने कालिदास को भारत का शेक्सपियर घोषित किया।
यह सीधा अन्याय था न! यह तो वही बात हुई कि किसी ग्रेजुएट की तुलना करके उसे दसवीं पास के बराबर बताया जाए।लेकिन भारतीय विद्वानों ने अंग्रेजों की इस बात को सर माथे लगाकर मान लिया। और आज तक मानते आ रहे हैं। है न आश्चर्य!
दुष्यंत और शकुंतला ने प्रेमविवाह कर लिया। उनकी संतान भी जल्दी ही जन्म लेनेवाली थी।
अब यहाँ से कहानी एक अप्रत्याशित मोड़ लेती है। उन्हें बिछड़ना पड़ता है। उथल पुथल के दिनों में ही उनके पुत्र भरत का जन्म होता है!
उनका पुत्र भरत असाधारण निकला! बचपन में ही इतना शक्तिशाली हो गया कि शेर, बाघ और चीते जैसे जानवरों को भी पकड़कर ले आता। बचपन में ही उसने सभी शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिए।
इस असाधारण बालक की ख्याति दुष्यंत तक भी पहुंची। जल्दी ही सारे बिछुड़े हुए लोगों का मिलन हुआ। गिले - शिकवे दूर हुए।
अब सबसे महत्वपूर्ण बात! दुष्यंत का पुत्र भरत आगे जाकर आर्यावर्त का चक्रवर्ती सम्राट बना। उन्हीं के नाम पर हमारे इस प्यारे देश का नाम भारत पड़ा है।
भरत ने भारतीय समाज, धर्म और राजव्यवस्था को एक नई दिशा दी। उनके द्वारा बनाये गए नियमों और मर्यादाओं का पालन आगे जाकर पूरे भारत में होने लगा।कौरव और पांडव भरतवंश में ही पैदा हुए थे।
चलिए, अब शुरुआत के प्रसंग पर वापस लौटते हैं। हमारे प्रधानमंत्री श्री नेहरू जी को यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि हमारे देश का यह प्राचीन नाटक रूस में भी लोकप्रिय है। उनसे रूसियों ने पूछा कि महर्षि कण्व का ये प्राचीन आश्रम भारत में कहां और किस दशा में है?
भारत लौटकर नेहरू जी ने निर्देश दिए कि इस प्राचीन स्थल का विकास किया जाए ताकि भारतवासी और अन्य पर्यटक यहां आकर उस महान विभूति के बारे में जान सकें, जिनके नाम से हमारे देश को अपना नाम प्राप्त हुआ!
लोग बताते हैं, आज साठ सालों से ऊपर हो गए! इस स्थल का उद्धार करने की योजनाएं अभी बन ही रहीं हैं! खैर, उम्मीद पर ही दुनिया कायम है!
दोस्तों, एक महीने पहले मैंने किसी से यह प्रसंग सुना। मुझे इस महान स्थल के बारे में जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पता नहीं क्यों, मन में इस जगह जाने की तीव्र इच्छा हुई।यह देखने का बहुत मन हुआ कि हमारे देश के इस महान पुत्र की जन्मस्थली कैसी दिखती है?
मैं हरिद्वार पहुंचा।अपने एक मित्र को फ़ोन किया। सब बताया।वे वहां पहले भी जा चुके थे। वहां हर साल लगनेवाले वसंतपंचमी के मेले में।
मित्र-" अभी जाकर क्या करोगे वहां। वसंतपंचमी पर चलना। मेला भी घूम लेंगे"
मैं- " मैं अभी ही जाऊंगा"
मित्र-" अभी कुछ नहीं दिखेगा वहां। केवल पेड़ पौधे, नदी और जंगल दिखेंगे। वो मैं यहां हरिद्वार में ही दिखा दूंगा। इतनी दूर जाने की क्या जरुरत है?
मैं-" कुछ पता भी है, कण्व आश्रम किसलिए प्रसिद्ध है?"
मित्र-" कर्ण की वजह से ।तभी तो उसका नाम कर्णाव आश्रम पड़ा"
मैं-" कौन से कण्व की बात कर रहे हो?"
मित्र-" अरे वही, महाभारत वाला कर्ण, और कौन?इतना भी नहीं जानते!"
मैं समझ गया।भारत के शीर्ष गुरुओं में एक महर्षि कण्व को आज की जनता कर्ण समझ बैठी है!!आगे की योजना एक पल में ही सूझ गयी।
मैं- " भाई ऐसा करो। सीधा अपनी गाड़ी लेकर हरिद्वार स्टेशन आ जाओ!कण्व हो या कर्ण हो, जाना तो जरूर है।"
और इस तरह हमारी यात्रा शुरू हुई। पहले हरिद्वार से ऋषिकेश। फिर ऊंचे नीचे पहाड़ों से होते हुए पहुंचे कोटद्वार। हालांकि अगर आप चाहें, तो हरिद्वार से कोटद्वार बिल्कुल सीधी सड़क भी बनी है, उससे भी जा सकते हैं। लेकिन हमने लंबा और घनघोर पहाड़ी रास्ता चुना।
कोटद्वार में एक और परिचित को हमने बुला लिया।वे एक फाइव स्टार होटल के चीफ शेफ हैं। छुट्टी में घर आये थे।उनसे मैंने कण्व आश्रम की जानकारी चाही।
शेफ महोदय-" अरे रे रे! आपको इस समय वहां कुछ नहीं मिलने वाला! मेरे बचपन के दिनों में वह जगह जुआरियों और नशेड़ियों का पसंदीदा ठिकाना हुआ करती थी। अभी भी कॉलेज के युवक युवतियों के अलावा आपको कोई मिलेगा नहीं। कोई मंदिर नहीं है। कोई पूजा नहीं होती वहां। स्मारक भी नहीं है। साधुबाबा और राजा भरत की मूर्तियां हैं , जिनको बनाते समय शायद कलाकार अपनी कला भूल बैठा था! बेहतर है, आप वहां न जाइए। आपको कुछ नहीं मिलेगा वहां।"
मित्र- "मैं तो पहले ही बोल रहा था! लेकिन चलो, दस मिनट के लिए चलते हैं!"
इसके साथ ही हम कोटद्वार से चले कण्व आश्रम की तरफ! आश्रम के नजदीक पहुंचते ही मैंने गाड़ी रोकने को कहा। उतरा। देखा- जहां तक दृष्टि जा रही थी, वनतुलसी की झाड़ियां दिख रहीं थी।
दोस्तों, आपने इस लेख के शुरू में ही कण्व आश्रम में मौजूद वनतुलसी के उपवनों की बात पढ़ी होगी। वाकई! कालिदास बिल्कुल सही थे!
कुछ देर में ही हम मालिनी नदी के तट पर थे। मालिनी।प्रचंड वेग वाली नदी! हमारे स्थानीय मित्र ने बताया कि कई बार तो ये अपने ऊपर बने पुल को भी बहा ले गयी है। दूर दिखाई देते जंगलों से भरे ऊँचे ऊँचे पहाड़! और उनके बीच से निकलकर आती मालिनी नदी! सुंदर दृश्य।
कण्व आश्रम तक जाने के लिए कुछ पहाड़ को काटकर बनी सीढियां दिखीं। इन सीढ़ियों की शुरुआत में ही इसकी ऐतिहासिकता बतानेवाला एक बोर्ड लगा है।घास और काई वाली इन सीढ़ियों पर अगर आप बिना किसी परेशानी के ऊपर चढ़ सकें, तो समझिये, आप स्वस्थ हैं!
जो भी हो। हम पहुंच ही गए!
एक छोटा सा मंदिर जो चारों तरफ से जाली के द्वारा घेरा गया था। मंदिर में कुछ मूर्तियां थीं। राजा दुष्यंत की मूर्ति। शकुंतला की मूर्ति। महर्षि कण्व। एक बालक जो भरत हैं। एक शेर। बालक भरत ने शेर को पकड़ा हुआ है।
मूर्तियों को देखकर विचार आया! अनगिनत संपदा वाला हमारा यह देश अपने महान पूर्वजों की मूर्तियां बनाने हेतु क्या दो चार लाख रुपये भी नहीं खर्च कर सकता!
छोटे मंदिर के सामने एक बड़ा सा उद्यान है जिसमें फूल पत्तियां, पेड़- पौधे लगे हैं। पता चला, यह परिश्रम वहां रहनेवाले एक बाबाजी द्वारा किया गया है।
मित्र ने चुटकी ली! आश्रम देख लिया न! अब चलो वापस।
दोस्तों, सच कहता हूं। मैं दुखी हुआ। बचपन में मुझे ही नहीं, हर बच्चे को पढ़ाया जाता है कि हमारे देश भारत का नाम यहां के महान शासक भरत के नाम पर पड़ा है! और उन्हीं भरत के जन्मस्थान को हम भारत के लोगों ने कैसी दशा में रख छोड़ा है!
मैं शांत होकर बैठ गया।कुछ मिनट। यूं ही।
तभी गरजने की आवाज़ आयी! वहां रहने वाले बाबाजी एक छात्र और छात्रा को डांट रहे थे। वजह? वह दोनों अपने आपको दुष्यंत और शकुंतला समझ रहे थे! बाबाजी ने उन दोनों को ये वचन लेकर ही छोड़ा कि वे आगे से किसी सार्वजनिक जगह पर कोई उद्दंडता नहीं करेंगे। इसके बाद छात्र भाग गया।छात्रा भी भाग गयी। बाबाजी को घेरकर खड़े लोग भी निकल लिए! और मेरे मित्रगण?वो वहीं रहे। मुझे छोड़कर भला कैसे चले जाते!
बाबाजी को पता नहीं क्या सूझा! आ पहुंचे मेरे पास।
बाबा-" भगवानजी! देखा आपने!आजकल के युवक सब जानते हैं लेकिन अपनी जड़ों को, अपने पूर्वजों को ही नहीं जानते। अगर मैं न रहूं तो लोग इसे पिकनिक वाली जगह बना के रख देंगे। क्या महर्षि कण्व के आश्रम को वो दिन भी देखना पड़ेगा !"
मैं- "बाबाजी, सरकार ने इन जगहों के विकास हेतु पर्यटन विभाग,पुरातत्व विभाग और संस्कृति विभाग खोले हुए हैं। वो इन स्थलों को नष्ट नहीं होने देंगे।"
बाबा-" क्या कहते हो भगवानजी! जानते हो! मैं सन पंचानबे में यहाँ आया था। यह जगह तब नशेड़ियों और जुआ खेलने वालों का अड्डा हुआ करती थी। मैंने संकल्प लिया कि इस राष्ट्रीय धरोहर के लिए अपना जीवन समर्पित करूँगा। एक दिन तब था ।एक दिन आज है। रात दिन लगकर मैंने तो अपना कर्तव्य निभाया।अब आपकी पीढ़ी के हाथ में है। जब आप जैसे जवान लोग ही उदासीन रहेंगे, तो मेरे जैसा अस्सी साल का बूढ़ा कितने दिनों तक इसकी सुरक्षा कर पायेगा?"
हमलोग बाबाजी के साथ उनकी कुटिया में गए।टूटे- फूटे से दो कमरे। पानी काफी दूर से ,एक झरने से लाना पड़ता है। पहले मोटर और पाइप की मदद से बाबाजी पहाड़ी तक पानी चढ़ा लेते थे। लेकिन मोटर चोरी हो गयी। तब से बाबाजी बाल्टियों से भरकर पानी ले जाते हैं। कल्पना कर के देखिए! आपको एक बीस या पंद्रह लीटर वाली बाल्टी में पानी लेकर सीढ़ियों से एक पांच मंजिला इमारत की छत पर जाना है।हममें से अधिकांश एक बाल्टी ले जाने में ही थक जाएंगे। लेकिन बाबाजी पचीसों बाल्टी पानी ले जाते है। उन पेड़ पौधों को सींचने के लिए, जो उन्होंने पहाड़ी पर लगा रखे हैं।
कुटिया में जो सुविधाएं उपलब्ध हैं, यकीन मानिए, जीवट वाला आदमी भी एक दो दिनों से ज्यादा नहीं रह सकेगा। कुछ स्थानीय लोग बाबाजी की मदद कर दिया करते हैं। कुछ पैसे से। कुछ खाद्य सामग्री से।
बाबाजी ने हमें अपनी कुटिया में बैठाया। पूरा इतिहास बताया। इनमें लेख के आरंभ में लिखी वो कहानी भी शामिल है, जो हम पहले से ही जानते थे। बाबाजी हर आगंतुक को भगवानजी कहकर संबोधित करते हैं और बड़े ही रोचक ढंग से एक बात में पिरोकर दूसरी बात कहते चले जाते हैं।
दोस्तों, एक बात समझ में आयी। हम भारतवासी अबतक अपने अतीत को ही नहीं समझ पाए हैं। जबतक हम अपनी राष्ट्रीय धरोहरों को सम्मान नहीं देंगे, तबतक दुनिया भी भारत नाम के हमारे राष्ट्र को सम्मान नहीं देगी।
हमारा समाज ऋणी है उन लोगों का जो तमाम कष्ट सहकर भी हमारे राष्ट्रीय तीर्थों की सुरक्षा और सम्मान के लिए संकल्पित हैं।यह ऋण तभी चुकाया जा सकता है जब हम तन मन, धन से ऐसे कर्मयोगियों की मदद करेंगे। और मैं जानता हूं, ऐसे लोगों की हमारे देश में कोई कमी नहीं है।
मित्रों, विश्वास है , हमारी पीढ़ी अपने दायित्वों से मुँह नहीं मोड़ेगी और कण्व आश्रम जैसे राष्ट्रीय स्थल फिर से एक दिन गौरवशाली स्थान प्राप्त करेंगे।
आज बस यहीं तक। आपकी अपनी वेबसाइट ashtyaam. com को समय देने के लिए ढेरों धन्यवाद और शुभकामनाएं।
आश्रम की जानकारी देता बोर्ड |
पीछे दिखाई देती शिवालिक पर्वतश्रृंखला और उनके बीच से निकलकर आती मालिनी नदी
आश्रम से दिखाई देती मालिनी नदी की एक झलक।इसने पिछले हजारों सालों में इस महान आश्रम का उत्थान और पतन सब देखा है! |
बाबाजी अक्सर यहीं बैठते हैं।यह चबूतरा मंदिर के बगल वाले बगीचे में है। |
महर्षि की बगल में दिख रहे हैं बालक भरत! वही भरत, जो शेर के मुख में हाथ डालकर उसके दांत गिन लिया करते थे।कोई आश्चर्य की बात नहीं अगर ऐसे व्यक्ति के शासनकाल में शेर और बकरी एक ही घाट से पानी पीते हों। |
आश्रम में लगाया गया रुद्राक्ष का पेड़ |
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