आज बात करते हैं, परशुराम के बारे में। इनका व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण है! हजारों युग आए और गए! लेकिन इनकी कथा हर समय कही- सुनी जाती रही है! इन्हें चिरंजीवी भी कहा जाता है क्योंकि इनकी लोकप्रियता और व्यक्तित्व समय और काल से परे रहे हैं। हर युग में इनकी उपस्थिति मानी गयी है।
परशुराम अपने समय के सबसे बड़े विद्वान ऋषियों में थे। लेकिन एक अनूठी बात थी! वो अपने समय के सबसे बड़े योद्धाओं में भी गिने जाते थे। शास्त्र और शस्त्र का यह संगम और किसी में आज तक नहीं देखा गया! हमेशा युद्ध के लिए उत्सुक रहने वाला यह परम क्रोधी ब्रम्हज्ञानी ऋषि तत्कालीन जनता के लिए श्रद्धा का एवं तत्कालीन राजाओं के लिए भय का विषय था! जब जब राजाओं ने उनसे टक्कर ली, विनाश को ही प्राप्त हुए!
प्रमाणों के अनुसार, वे आरंभिक जीवन में बड़े सरल, विनम्र करुणाशील एवं अंतर्मुखी युवा थे! ब्रम्हज्ञान की धुन में लीन यह युवा आश्रम की भीड़ का ही एक हिस्सा था!
दोस्तों, आज हम इन्हीं परशुरामजी के विषय मे चर्चा करेंगे। देखेंगे, आखिर वो कौन सी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने एक सीधे सरल छात्र को युग का सबसे अजेय योद्धा बना दिया! इतना बड़ा योद्धा, जिसने 21 बार राजसत्ताओं से लोहा लिया और हर बार विजयी बना!
चलिए, शुरू करते हैं।
परशुरामजी का बचपन का नाम राम था। महान ऋषि जमदग्नि उनके पिता थे। जमदग्नि एक योद्धा सन्यासी थे। युद्धकला में उन्हें महारत थी। उनका मानना था कि विद्वान वर्ग को अपनी एवं जनता की रक्षा करने में सक्षम होना चाहिए। जब शासक वर्ग अत्याचारी हो उठे, तो ऋषियों को उसे जवाब देना चाहिए। जमदग्नि की यह सोच उन्हें राजाओं की आर्थिक सहायता एवं अनुदानों से वंचित किये हुए थी! उनका आश्रम आम जनता के अनुदान से चलता था!
जमदग्नि का सिद्धांत था-" आम जनों को भी युद्धकला सहित हर विद्या सीखने का अधिकार है"।उनकी इस सोच में शासक वर्ग को विद्रोह की गंध आती थी।
परशुरामजी की माता रेणुका राजा प्रसेनजित की पुत्री थीं।उनके कुशल प्रबंधन के चलते आश्रम सुचारू रूप से चलता था। उन्होनें सदा इस बात को सुनिश्चित किया कि शासकों के प्रति जमदग्नि का विरोध केवल वैचारिक तौर पर ही सीमित रहे! माध्यम मार्ग की इसी नीति के चलते उनकी अपने पति से नोंक झोंक भी होती थी!
जमदग्नि और रेणुका के पांच पुत्र हुए। चार पुत्र माता के प्रभाव में रहे। सबसे छोटा पुत्र राम पिता से प्रभावित था! जमदग्नि राम को ही अपना उत्तराधिकारी मानने लगे! उन्होंने उसके गुरु का पद ग्रहण किया! बालक राम की शिक्षा बहुत ही कठोर अनुशासन में शुरू की।
राम को अपने पिता और गुरु महर्षि जमदग्नि पर अटूट विश्वास था। उसके बाकी भाई समय समय पर ननिहाल जाकर राजसी सुखों का आनंद लेते! लेकिन राम हमेशा अपने पिता के साथ रहता! किशोरावस्था आते आते उसने अपने पिता का सारा ज्ञान आत्मसात कर लिया।
उधर राजागण जमदग्नि को नीचा दिखाने के मौके ढूंढते ही रहते थे! एक बार गंधर्वराज चित्ररथ ने उनके आश्रम के समीप ही अपना शिविर लगा लिया। नृत्य एवं संगीत उत्सव का आयोजन किया। जमदग्नि को परिवार सहित इसमें भाग लेने का आमंत्रण मिला क्योंकि उनकी पत्नी राजकुल से थीं। महर्षि ने इस निमंत्रण पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देकर मौन विरोध दर्शाया।
दोस्तों, प्राचीन भारत के सामाजिक नियमों के अनुसार किसी ऋषि आश्रम या गुरुकुल के पास सैन्य शिविर लगाना, शिकार खेलना एवं किसी तरह का कोलाहल करना सख्त वर्जित था!
राजा चित्ररथ का यह कार्य एक दंडनीय अपराध था।
महर्षि जमदग्नि इसके विरोध का उपाय सोच ही रहे थे कि एक बहुत बड़ी दुर्घटना घट गई।
माता रेणुका ने सोचा- राजा के निमंत्रण का मान रखना चाहिए। वो खुद एक राजकुमारी थीं। जानती थीं। राजनिमंत्रण की अवहेलना का मतलब है-राजा से शत्रुता। रेणुका अकेले चित्ररथ के पास चली गयीं।
इधर जमदग्नि का क्रोध चरम पर था। उन्होंने रेणुका के इस कार्य को राजवर्ग के सामने ऋषिवर्ग के आत्मसमर्पण के तौर पर देखा।रेणुका के लौटते ही उन्होनें अपने शिष्यों को आदेश दिया। रेणुका का वध करने को कहा।
किसी शिष्य ने गुरुमाता के वध का साहस नहीं दिखाया। अब उन्होंने पुत्रों को आज्ञा दी। राम को छोड़कर बाकी पुत्र भय और शोक से बेहोश हो गए। अब जमदग्नि ने अपने सबसे प्रिय शिष्य और पुत्र राम की तरफ देखा!
राम ने मन में निर्णय कर लिया। माता की ओर बढ़ा। माता रेणुका आंखें बंद कर पालथी मारकर जमीन पर बैठी थीं। उनके मन में घोर पश्चाताप था। राम ने माता को प्रणाम किया।फिर गुरु की ओर देखा। इस समय जमदग्नि एक पिता या पति न होकर ऋषिवर्ग के एक प्रतिनिधि के तौर पर स्थिर खड़े थे।
मन में घोर विलाप करते हुए युवा परशुराम ने माता का गला रेत डाला।सारे लोग हाहाकार कर उठे! परशुराम अब एकटक अपने गुरू को देखने लगे जिनके चेहरे पर भावों का परिवर्तन तेजी से हो रहा था!
कुछ ही क्षण लगे। क्रोध पर करुणा ने विजय पाई। ऋषि ने शिष्यों को रेणुका की चिकित्सा करने की अनुमति दे दी। एक से बढ़कर एक वैद्य आ जुटे। गला कुछ इस तरह रेता गया था कि ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था। अतः वैद्यों ने राहत की सांस ली। रेणुका अब खतरे से बाहर थीं।
जल्दी ही आश्रम में सब कुछ सामान्य हो गया। लेकिन परशुराम की जिंदगी पूरी तरह बदल गयी। वह जिधर जाता, लोग उसे अजीब नजरों से घूरते। कोई उससे बात नहीं करता। खुद माता उसकी उपेक्षा करतीं।
दोस्तों, मां का स्थान हर संस्कृति में सबसे ऊंचा है। सब जानते हैं। सोचिए, अगर कोई मां की हत्या का प्रयास करे तो समाज उसके प्रति क्या व्यवहार करेगा! वही व्यवहार परशुराम के साथ हो रहा था। जबकि हम जानते हैं, यह कार्य उसने गुरु आज्ञा के अधीन होकर, परिस्थिति वश होकर किया था। लेकिन कुछ अपराधों की क्षमा नहीं होती। आज तक हम देखते हैं। इस घटना की चर्चा होती है।
जीवन की इस दुर्घटना ने परशुराम को बदल दिया। उनके व्यवहार में निष्ठुरता और शुष्कता आ गयी। उनके मन में बात बैठ गयी। निरंकुश राजाओं को जड़ मूल से उखाड़ना ही उनका ध्येय बन गया। उन्होंने शास्त्र और शस्त्र दोनों में ही शिखर पर पहुंचने की ठान ली।
लेकिन एक समस्या आयी। मातृहत्या के आरोपी को शिक्षा कौन देता? राजसत्ता के प्रबल विरोधी जमदग्नि के पुत्र को रखकर कौन शासकों से शत्रुता करता!
हर ओर से निराश परशुराम शिव की शरण में गए। कहते हैं, जिसे कोई नहीं अपनाता, उसे भी शिव अपना लेते हैं। इसलिए उन्हें भोलेनाथ भी कहा जाता है।
देवाधिदेव महादेव की तपस्या करके उन्होंने अमोघ परशु अस्त्र प्राप्त किया। महादेव ने उन्हें अपना शिष्य बनाकर शास्त्र और शस्त्रों का अलौकिक ज्ञान प्रदान किया। अब परशुराम धरती के सबसे बड़े और अजेय योद्धाओं में एक बन गए।
उधर महर्षि जमदग्नि भी राजाओं के निशाने पर आ चुके थे। राजवर्ग के अत्याचारों के खिलाफ उनका जन आंदोलन मजबूत हो रहा था।
एक दिन महिष्मति का राजा कार्तिवीर्य अर्जुन आश्रम में आ पहुंचा। जमदग्नि से उसकी बहस हो गयी। उसने महर्षि का अपमान किया। छात्रों को पीटा।आश्रम की गायों को ले जाना चाहा। कड़े प्रतिरोध के बाद उसने जमदग्नि को मार डाला।
अब संघर्ष शुरू हो चुका था।
परशुराम खबर मिलते ही आश्रम आये। अपने पिता के शरीर को अनेक टुकड़ों में बिखरे देखा। उनके क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने प्रतिज्ञा की- पृथ्वी को इन जैसे शासकों से मुक्त करूँगा।
परशुराम ने आम जनों को संगठित किया। शासकों के अत्याचार के खिलाफ ऋषिवर्ग भी साथ आ मिला। ब्राम्हणों का भी सक्रिय समर्थन उन्हें मिला। महर्षि जमदग्नि की हत्या ने सबको झकझोर दिया था। सबने परशुरामजी को अपना नायक स्वीकार किया।
अब निर्णायक समय आ चुका था।
पहला नंबर हैहय वंश के सर्वोच्च शासक राजा कार्तिवीर्य अर्जुन का आया। लोग उसे सहस्त्रार्जुन भी कहते थे क्योंकि वह अकेला ही हजारों पर भारी पड़ता था। परशुराम ने अपने फरसे से उसकी भुजाओं को काट डाला। उसके सारे लोगों को मारकर उसका राज्य ऋषियों को सौंप दिया ताकि वो योग्य लोगों को शासन प्रदान करें।
इसके बाद एक श्रृंखला चल पड़ी। परशुराम और उनके सहयोगी अत्याचारी शासकों से युद्ध करके उनका नाश करते। इसके बाद वह राज्य ऋषियों को सौंप दिया जाता। ऋषिवर्ग आम जनता के बीच से सुयोग्य लोगों को चुनकर उन्हें अधिकार प्रदान करते। कुल 21 बार ये जन आंदोलन सफलतापूर्वक संपन्न हुए। हर बार खुद को ईश्वर का अवतार समझने वाले राजाओं को मुँह की खानी पड़ी। उनको धूल चटाने वाले परशुरामजी को ही लोगों ने ईश्वर का अवतार मानना शुरू कर दिया!
उथल पुथल का दौर खत्म हुआ! अब परशुरामजी ने सामाजिक और धार्मिक सुधारों की ओर ध्यान केंद्रित किया।
तत्कालीन समाज में बहुविवाह की प्रथा थी। परशुराम जी ने एक पत्नीव्रत का समर्थन किया। महर्षि अत्रि, सती अनुसूया, महर्षि अगस्त्य, लोपामुद्रा ने इसके पक्ष में जनमत तैयार कर दिया। आज भी हिन्दू इसे मानते हैं।
शास्त्रों में कुछ संकेत इस बात की ओर इशारा करते हैं कि उन्होंने समुद्र में डूबे दक्षिण भारत के हिस्सों का उद्धार किया एवं नए सिरे से लोगों को यहां बसाया। गोवा, कोंकण, केरल और पश्चिमी घाट के अनेक हिस्सों में ऐसी जनश्रुतियां हैं। इन इलाकों में फैले परशुराम के मंदिर और लोगों की उनमें आस्था इसकी पुष्टि करती है।
परशुराम चाहते थे कि हर व्यक्ति सबल और आत्मरक्षा में समर्थ हो। उन्होंने मार्शल आर्ट की अनूठी शैली विकसित की। प्राचीन केरल में यह कलरीपायट्टु के नाम से प्रचलित हुई।कालांतर में बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा यह चीन और जापान पहुंची।जुडो कराटे इसी के आधुनिक संस्करण हैं।
भारतीय कथाओं में परशुराम हर युग में मिलते हैं। भगवान राम ने राजा जनक के यहां जो धनुष तोड़ा, वह परशुरामजी के द्वारा ही जनक को दिया गया था। परशुरामजी बड़े क्रोध में वहां पहुंचे। लेकिन भक्त ने जल्दी ही भगवान को पहचान लिया।
महाभारत काल में उन्होंने द्रोणाचार्य को शस्त्रों का ज्ञान दिया। कर्ण ने भी उनसे शिक्षा पाई।
ऐसी मान्यता है कि लोककल्याण के लिए परशुरामजी आज भी तपस्या में लीन हैं। ये मान्यता दर्शाती है कि जनमानस में महान विभूतियां हमेशा जीवित रहती हैं। उनका व्यक्तित्व लोगों को शारीरिक और मानसिक रूप से सुदृढ़ बनने को प्रेरित करता है।भारत के अनेक समुदाय उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं।
आज बस यहीं तक। आगे भी हम महापुरुषों का स्मरण इसी तरह करते रहेंगे। आपकी अपनी वेबसाइट www. ashtyaam. com को स्नेह देने के लिए धन्यवाद।
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