दोस्तों, आज हम बात करेंगे रानी लक्ष्मीबाई के बारे में। उनका गौरवशाली व्यक्तित्व हमारे इतिहास में अनूठा और विशिष्ट स्थान रखता है। वह उन गिनी चुनी विभूतियों में हैं जिनके वजूद एवं विचारों को अंग्रेजों ने हर तरीके से मिटा देने की कोशिश की। लेकिन हार गए। भारत की साधारण जनता ने उन्हें लोकगीतों, दंतकथाओं और मौखिक इतिहास के जरिये जीवित रखा। पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के हृदय में उनकी कहानी चलती आयी।
लक्ष्मीबाई किसी राजसी खानदान से नहीं थीं। उन्होनें विधिवत रूप से सैनिक शिक्षा भी नहीं प्राप्त की थी। वह भारत की उस जनभावना का प्रतीक थीं जिसने विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष किया। उस दौर के सबसे धूर्त अंग्रेज़ जनरल ह्यूरोज को भी कहना पड़ा-" जितने योद्धाओं से सामना हुआ है, उनमें रानी अकेली मर्द थी"। लक्ष्मीबाई ने अपने छोटे से जीवन में बहुत भयंकर युद्ध लड़े। दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई।अपने छोटे से पुत्र को पीठ पर बांधकर लड़ते हुए। युद्ध के मैदान में उनका स्वरूप देखकर शत्रुओं के दिल दहल जाते थे!
दोस्तों, आज हम उन घटनाओं एवं परिस्थितियों की चर्चा करेंगे जिन्होंने एक साधारण घर की सीधी साधी बालिका को पहले तो एक राज्य की महारानी और फिर आजादी के लिए लड़ने वाली एक वीरांगना बनाया। हम बहुत ही संक्षेप में यह भी देखेंगे कि उनके बलिदान को आम जनमानस ने कैसे अपने हृदय में संजोकर रखा।
आइये, शुरू करें।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म बनारस में हुआ था। पिता मोरोपंत मराठा सरदार चिमाजी के सेवक थे।माता भागीरथी एक धार्मिक महिला थीं। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका रखा गया। प्यार से सब उन्हें मनु बुलाते थे।
अब यहां एक प्रश्न लेते हैं। मोरोपंत और उनके स्वामी सरदार चिमाजी बनारस में क्यों रह रहे थे?
इसका कारण था। चिमाजी के भाई बाजीराव द्वितीय मराठा संघ के पेशवा थे। उन्होंने अंग्रेजों के साथ एक संधि की थी। इसके चलते उन्हें महाराष्ट्र छोड़कर बिठूर आना पड़ा था। बिठूर कहाँ है? यह कानपुर के पास है। बाजीराव द्वितीय अपने पूरे परिवार के साथ यहां आ गए। लेकिन उनके भाई चिमाजी ने बनारस आना पसंद किया। मोरोपंत उन्हीं की सेवा में बनारस आ गए। यहीं लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।
कुछ समय के बाद चिमाजी का देहांत हो गया। उनके सभी लोगों को पेशवा ने अपने पास बिठूर बुला लिया। मोरोपंत वहां जाकर उनके सबसे प्रिय सेवक बन गए। पेशवा उन्हें अपना मित्र मानते थे। इसी बीच एक घटना घटी थी। मनु की माता का भी देहांत हो गया था। उसके बाद पिता मोरोपंत ने ही मां का भी दायित्व निभाया। वो जहां भी जाते, मनु को साथ रखते।
पेशवा बाजीराव भी मनु को अपनी पुत्री मानते थे। उन्होंने उसकी पढ़ाई का प्रबंध अपने दत्तक पुत्र नानासाहेब के साथ कर दिया। कुश्ती, घुड़सवारी, तलवार चलाना मनु खुद ही सीख गयी। एक बालिका को घोड़े पर बैठकर तलवार चलाते देख लोग दंग रह जाते। उस समय स्त्रियों को ये सब सिखाने की प्रथा नहीं थी।
दोस्तों, यहां एक बात ध्यान देने की है। जिस उम्र में बच्चे खिलौने से खेलते हैं, मनु शस्त्रों का अभ्यास कर रही थी। छोटी उम्र में ही वह अपने पिता और पेशवा की बातें सुनकर राजनीति के गूढ़ रहस्यों को भी समझ रही थी। उसके मस्तिष्क में ये बात घर करती जा रही थी कि सात समंदर पार से आई एक शक्ति धीरे धीरे भारत पर कब्जा करती जा रही है। अगर इन्हें नहीं रोका गया तो ये हमारी संस्कृति को नष्ट कर देंगे।
एक मनोरंजक बात और थी। मनु जब पिता और पेशवा के किसी राजनीतिक वार्तालाप पर अपना विचार प्रकट करती तो उसके पहले मुस्कुरा देती। इस वजह से पेशवा उसे छबीली कहते और खूब हँसते!
एक बार पेशवा के पास तात्या दीक्षित आये। वह बहुत बड़े विद्वान थे। कई राजा उन्हें गुरु मानते थे। उन्होंने मनु की कुंडली देखी, वार्तालाप सुना। बोले- यह इतिहासप्रसिद्ध होगी। रानी बनेगी।
अब भाग्य ने भूमिका निभाई। दीक्षित जी के प्रयासों से झांसी के राजा गंगाधर राव से मनुबाई का रिश्ता तय हो गया। अब मनु झांसी की महारानी बन गयी। प्रथा के अनुसार उन्हें एक नया नाम मिला- रानी लक्ष्मीबाई।
गंगाधर राव को पुस्तकों, संगीत, नाटक आदि कलाओं का बहुत शौक था। उनका विशाल निजी पुस्तकालय पूरे भारत में प्रसिद्ध था। उन्होंने एक विशाल theatre अर्थात नाट्यशाला भी बनवाई थी , जिसमें कलाकारों द्वारा प्राचीन नाटकों का मंचन होता था। गंगाधर राव की अंग्रेज़ों के साथ गहरी मित्रता थी।
राजा तो पुस्तकों और नाटकों में व्यस्त रहते! लक्ष्मीबाई ने प्रजा की खोज खबर लेनी शुरू की। सरकारी अभिलेख देखे। पता चला, अंग्रेज़ पूरे राज्य को दीमक की तरह खा रहे थे।
अंग्रेजों की नीति बड़ी स्पष्ट थी। पहले वे किसी राज्य से संधि करते! फिर उसे दीमक की तरह चाटकर उसे खोखला कर देते! राज्य कमजोर हो जाने पर वहां अव्यवस्था फैल जाती! इसके बाद अंग्रेज वहां कब्जा कर लेते और राजा को पेंशन देकर कहीं बाहर भेज देते।
लेकिन लक्ष्मीबाई ने अव्यवस्था नही फैलने दी। उन्होंने गंगाधर राव को सचेत किया। जनसमस्याओं के समाधान के लिए एक तंत्र बनाया। अंग्रेज समझ गए। जबतक रानी है, तबतक उन्हें झांसी नहीं मिलेगी।
लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। लेकिन तीन महीने के बाद ही उसकी मौत हो गयी। इस घटना ने अंग्रेजों के सपनों को फिर से जिंदा कर दिया। उस समय के गवर्नर जनरल की नीति थी कि जिस राज्य का कोई उत्तराधिकारी न हो, उसे ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल किया जाएगा।
पुत्रशोक में राजा गंगाधर राव बहुत बीमार हो गए। बहुत शीघ्रता में उन्होंने एक बालक को गोद लिया और दामोदर राव नामकरण किया।अंग्रेज़ अधिकारियों की उपस्थिति में उन्होंने दामोदर राव को अपना उत्तराधिकारी और लक्ष्मीबाई को उसकी संरक्षिका घोषित किया। यह तय हुआ कि जबतक बालक बालिग नहीं होता, लक्ष्मीबाई ही वास्तविक शासक होंगीं। इसके बाद राजा का देहांत हो गया।
अंग्रेज़ों ने हमेशा की तरह चालाकी की। बालक को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया।अंग्रेज़ अधिकारी मेजर एलिस ने गवर्नर जनरल का आदेश झांसी के राजदरबार में सुनाया। रानी ने गरजते हुए कहा- मैं अपनी झांसी नही दूंगी।ये कथन इतिहास में अमर हो गया।अंग्रेजों की शक्ति प्रबल थी।झांसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। रानी ने ब्रिटिश सरकार के सामने वकीलों के माध्यम से सारे सबूत दिए। लेकिन सब बेकार रहा।
झांसी अंग्रेजी राज्य में मिला ली गयी। अब रानी के जीवन का एक ही लक्ष्य हो गया- स्वतंत्रता। उनकी दिनचर्या बहुत व्यस्त हो गयी। सुबह चार बजे उठना। आठ बजे तक पूजा पाठ और चिंतन। फिर ग्यारह बजे तक जनता विशेष तौर पर महिलाओं का सैन्य प्रशिक्षण।फिर नगर के दरिद्रों, विकलांगों को भोजन कराने के बाद खुद भोजन। उसके बाद रामनाम का लेखन और चिंतन। तीन बजे के बाद सूर्यास्त तक सैन्य प्रशिक्षण। फिर सामूहिक प्रार्थना और भजन। भोजन के बाद दस बजे शयन।
रानी प्रजा में बहुत लोकप्रिय हो गयीं। झांसी के लोग उनका एक देवी की तरह सम्मान करते थे।उनका संगठन दिनोंदिन शक्तिशाली होता जा रहा था।
अंग्रेज़ बहुत सतर्क थे। वो रानी की संगठन शक्ति से डरे हुए थे। उन्होंने झांसी के पड़ोसी राजाओं को अपने साथ लिया। रानी की मुश्किलें बढ़ीं।लेकिन आम जनता उनके साथ थी।
जल्दी ही 1857 का महाविद्रोह हुआ। अंग्रेज़ों ने पूरी शक्ति के साथ झांसी पर हमला किया! दो हफ़्तों के भयंकर युद्ध के बाद रानी ने अपने विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी छोड़ दी।
रानी कालपी गयीं। तात्या टोपे, नाना साहब और बहुत सारे अन्य विद्रोही सरदार भी आ मिले। उन्होनें ग्वालियर जीत लिया। सिंधिया के अधिकांश सैनिक भी साथ आ गए।
अब यहां एक बात हुई। रानी का मत था कि हमें बिना समय गवाएँ आस पड़ोस के क्षेत्रों को भी जीतना चाहिए और आम लोगों की फौज खड़ी करनी चाहिए।वहीं कुछ सरदारों का मानना था कि ग्वालियर में रहकर अंग्रेज़ों से लड़ना चाहिए। यही हुआ भी।
रानी जानती थीं।अंग्रेज़ ग्वालियर को जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक देंगें।
अंग्रेज़ एक चक्रवात की तरह ग्वालियर पर छा गए।रानी लक्ष्मीबाई ने भी रणचंडी का रूप धारण किया और अंग्रेजों के बीच कूद पड़ी। उन्होंने बलिदान का निर्णय कर लिया था। दोनों पक्ष जीतोड़ लड़े। अंग्रेजी तोपों ने कहर ढा दिया। लेकिन लक्ष्मीबाई के रहते भारतीयों का मनोबल भी आसमान पर था। अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज़ ने रानी को सबसे चालाक और सबसे खतरनाक शत्रु घोषित किया।
अब निर्णायक क्षण आ गया था।18 जून 1858 को शत्रु की विशाल सेना ने रानी को घेर लिया। कई घाव लगने पर रानी खून से लथपथ हो गयीं। उस समय उनके युद्ध करने के कौशल को देखकर प्रत्यक्षदर्शियों के कलेजे फट गए। अंग्रेजों ने उन्हें जिंदा पकड़ने का प्रयास किया लेकिन वो घेरा तोड़कर निकल गयीं। उनके सर की चमड़ी फटकर उनकी आंखों पर आ रही थी और उन्हें बड़ी मुश्किल से दिखाई दे रहा था।
रानी का अंतिम संकल्प ये था कि जीते जी उन्हें अंग्रेज़ न छू पाएं। उन्होंने अपने साथियों को आदेश दिया। एक साधु ने अपनी कुटिया तोड़कर चिता बनाई। जैसे ही प्राण निकले, तुरंत उनके शरीर को जला दिया गया। चिता जलती देख अंग्रेज़ तुरंत पहुँचे लेकिन साधु और उनके शिष्य अपने प्राण देकर उन्हें चिता जल जाने तक रोके रहे।
रानी लक्ष्मीबाई का शरीर तो पंचतत्वों में मिल गया लेकिन उनकी कीर्ति हवाओं में घुलकर सभी दिशाओं में फैल गयी। जिसने भी उन्हें देखा, सुना और समझा, उसने अपने ढंग से उनकी कहानी अगली पीढ़ियों को बताई। ये सैकड़ों गाथाएं लोकगीतों, दंतकथाओं, कविताओं एवं कथाओं के रूप में आज भी मौजूद हैं।
अंत में हम प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की निम्न पंक्तियों से उस देवी के बलिदान को नमन करेंगे-
जाओ रानी, याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी
ये तेरा बलिदान, जगायेगा स्वतंत्रता अविनाशी
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू एक अमिट निशानी थी
बुंदेले, हरबोलों के मुँह, हमने ये सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थी
दोस्तों, आज हम उन घटनाओं एवं परिस्थितियों की चर्चा करेंगे जिन्होंने एक साधारण घर की सीधी साधी बालिका को पहले तो एक राज्य की महारानी और फिर आजादी के लिए लड़ने वाली एक वीरांगना बनाया। हम बहुत ही संक्षेप में यह भी देखेंगे कि उनके बलिदान को आम जनमानस ने कैसे अपने हृदय में संजोकर रखा।
आइये, शुरू करें।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म बनारस में हुआ था। पिता मोरोपंत मराठा सरदार चिमाजी के सेवक थे।माता भागीरथी एक धार्मिक महिला थीं। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका रखा गया। प्यार से सब उन्हें मनु बुलाते थे।
अब यहां एक प्रश्न लेते हैं। मोरोपंत और उनके स्वामी सरदार चिमाजी बनारस में क्यों रह रहे थे?
इसका कारण था। चिमाजी के भाई बाजीराव द्वितीय मराठा संघ के पेशवा थे। उन्होंने अंग्रेजों के साथ एक संधि की थी। इसके चलते उन्हें महाराष्ट्र छोड़कर बिठूर आना पड़ा था। बिठूर कहाँ है? यह कानपुर के पास है। बाजीराव द्वितीय अपने पूरे परिवार के साथ यहां आ गए। लेकिन उनके भाई चिमाजी ने बनारस आना पसंद किया। मोरोपंत उन्हीं की सेवा में बनारस आ गए। यहीं लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।
कुछ समय के बाद चिमाजी का देहांत हो गया। उनके सभी लोगों को पेशवा ने अपने पास बिठूर बुला लिया। मोरोपंत वहां जाकर उनके सबसे प्रिय सेवक बन गए। पेशवा उन्हें अपना मित्र मानते थे। इसी बीच एक घटना घटी थी। मनु की माता का भी देहांत हो गया था। उसके बाद पिता मोरोपंत ने ही मां का भी दायित्व निभाया। वो जहां भी जाते, मनु को साथ रखते।
पेशवा बाजीराव भी मनु को अपनी पुत्री मानते थे। उन्होंने उसकी पढ़ाई का प्रबंध अपने दत्तक पुत्र नानासाहेब के साथ कर दिया। कुश्ती, घुड़सवारी, तलवार चलाना मनु खुद ही सीख गयी। एक बालिका को घोड़े पर बैठकर तलवार चलाते देख लोग दंग रह जाते। उस समय स्त्रियों को ये सब सिखाने की प्रथा नहीं थी।
दोस्तों, यहां एक बात ध्यान देने की है। जिस उम्र में बच्चे खिलौने से खेलते हैं, मनु शस्त्रों का अभ्यास कर रही थी। छोटी उम्र में ही वह अपने पिता और पेशवा की बातें सुनकर राजनीति के गूढ़ रहस्यों को भी समझ रही थी। उसके मस्तिष्क में ये बात घर करती जा रही थी कि सात समंदर पार से आई एक शक्ति धीरे धीरे भारत पर कब्जा करती जा रही है। अगर इन्हें नहीं रोका गया तो ये हमारी संस्कृति को नष्ट कर देंगे।
एक मनोरंजक बात और थी। मनु जब पिता और पेशवा के किसी राजनीतिक वार्तालाप पर अपना विचार प्रकट करती तो उसके पहले मुस्कुरा देती। इस वजह से पेशवा उसे छबीली कहते और खूब हँसते!
एक बार पेशवा के पास तात्या दीक्षित आये। वह बहुत बड़े विद्वान थे। कई राजा उन्हें गुरु मानते थे। उन्होंने मनु की कुंडली देखी, वार्तालाप सुना। बोले- यह इतिहासप्रसिद्ध होगी। रानी बनेगी।
अब भाग्य ने भूमिका निभाई। दीक्षित जी के प्रयासों से झांसी के राजा गंगाधर राव से मनुबाई का रिश्ता तय हो गया। अब मनु झांसी की महारानी बन गयी। प्रथा के अनुसार उन्हें एक नया नाम मिला- रानी लक्ष्मीबाई।
गंगाधर राव को पुस्तकों, संगीत, नाटक आदि कलाओं का बहुत शौक था। उनका विशाल निजी पुस्तकालय पूरे भारत में प्रसिद्ध था। उन्होंने एक विशाल theatre अर्थात नाट्यशाला भी बनवाई थी , जिसमें कलाकारों द्वारा प्राचीन नाटकों का मंचन होता था। गंगाधर राव की अंग्रेज़ों के साथ गहरी मित्रता थी।
राजा तो पुस्तकों और नाटकों में व्यस्त रहते! लक्ष्मीबाई ने प्रजा की खोज खबर लेनी शुरू की। सरकारी अभिलेख देखे। पता चला, अंग्रेज़ पूरे राज्य को दीमक की तरह खा रहे थे।
अंग्रेजों की नीति बड़ी स्पष्ट थी। पहले वे किसी राज्य से संधि करते! फिर उसे दीमक की तरह चाटकर उसे खोखला कर देते! राज्य कमजोर हो जाने पर वहां अव्यवस्था फैल जाती! इसके बाद अंग्रेज वहां कब्जा कर लेते और राजा को पेंशन देकर कहीं बाहर भेज देते।
लेकिन लक्ष्मीबाई ने अव्यवस्था नही फैलने दी। उन्होंने गंगाधर राव को सचेत किया। जनसमस्याओं के समाधान के लिए एक तंत्र बनाया। अंग्रेज समझ गए। जबतक रानी है, तबतक उन्हें झांसी नहीं मिलेगी।
लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। लेकिन तीन महीने के बाद ही उसकी मौत हो गयी। इस घटना ने अंग्रेजों के सपनों को फिर से जिंदा कर दिया। उस समय के गवर्नर जनरल की नीति थी कि जिस राज्य का कोई उत्तराधिकारी न हो, उसे ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल किया जाएगा।
पुत्रशोक में राजा गंगाधर राव बहुत बीमार हो गए। बहुत शीघ्रता में उन्होंने एक बालक को गोद लिया और दामोदर राव नामकरण किया।अंग्रेज़ अधिकारियों की उपस्थिति में उन्होंने दामोदर राव को अपना उत्तराधिकारी और लक्ष्मीबाई को उसकी संरक्षिका घोषित किया। यह तय हुआ कि जबतक बालक बालिग नहीं होता, लक्ष्मीबाई ही वास्तविक शासक होंगीं। इसके बाद राजा का देहांत हो गया।
अंग्रेज़ों ने हमेशा की तरह चालाकी की। बालक को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया।अंग्रेज़ अधिकारी मेजर एलिस ने गवर्नर जनरल का आदेश झांसी के राजदरबार में सुनाया। रानी ने गरजते हुए कहा- मैं अपनी झांसी नही दूंगी।ये कथन इतिहास में अमर हो गया।अंग्रेजों की शक्ति प्रबल थी।झांसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। रानी ने ब्रिटिश सरकार के सामने वकीलों के माध्यम से सारे सबूत दिए। लेकिन सब बेकार रहा।
झांसी अंग्रेजी राज्य में मिला ली गयी। अब रानी के जीवन का एक ही लक्ष्य हो गया- स्वतंत्रता। उनकी दिनचर्या बहुत व्यस्त हो गयी। सुबह चार बजे उठना। आठ बजे तक पूजा पाठ और चिंतन। फिर ग्यारह बजे तक जनता विशेष तौर पर महिलाओं का सैन्य प्रशिक्षण।फिर नगर के दरिद्रों, विकलांगों को भोजन कराने के बाद खुद भोजन। उसके बाद रामनाम का लेखन और चिंतन। तीन बजे के बाद सूर्यास्त तक सैन्य प्रशिक्षण। फिर सामूहिक प्रार्थना और भजन। भोजन के बाद दस बजे शयन।
रानी प्रजा में बहुत लोकप्रिय हो गयीं। झांसी के लोग उनका एक देवी की तरह सम्मान करते थे।उनका संगठन दिनोंदिन शक्तिशाली होता जा रहा था।
अंग्रेज़ बहुत सतर्क थे। वो रानी की संगठन शक्ति से डरे हुए थे। उन्होंने झांसी के पड़ोसी राजाओं को अपने साथ लिया। रानी की मुश्किलें बढ़ीं।लेकिन आम जनता उनके साथ थी।
जल्दी ही 1857 का महाविद्रोह हुआ। अंग्रेज़ों ने पूरी शक्ति के साथ झांसी पर हमला किया! दो हफ़्तों के भयंकर युद्ध के बाद रानी ने अपने विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी छोड़ दी।
रानी कालपी गयीं। तात्या टोपे, नाना साहब और बहुत सारे अन्य विद्रोही सरदार भी आ मिले। उन्होनें ग्वालियर जीत लिया। सिंधिया के अधिकांश सैनिक भी साथ आ गए।
अब यहां एक बात हुई। रानी का मत था कि हमें बिना समय गवाएँ आस पड़ोस के क्षेत्रों को भी जीतना चाहिए और आम लोगों की फौज खड़ी करनी चाहिए।वहीं कुछ सरदारों का मानना था कि ग्वालियर में रहकर अंग्रेज़ों से लड़ना चाहिए। यही हुआ भी।
रानी जानती थीं।अंग्रेज़ ग्वालियर को जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक देंगें।
अंग्रेज़ एक चक्रवात की तरह ग्वालियर पर छा गए।रानी लक्ष्मीबाई ने भी रणचंडी का रूप धारण किया और अंग्रेजों के बीच कूद पड़ी। उन्होंने बलिदान का निर्णय कर लिया था। दोनों पक्ष जीतोड़ लड़े। अंग्रेजी तोपों ने कहर ढा दिया। लेकिन लक्ष्मीबाई के रहते भारतीयों का मनोबल भी आसमान पर था। अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज़ ने रानी को सबसे चालाक और सबसे खतरनाक शत्रु घोषित किया।
अब निर्णायक क्षण आ गया था।18 जून 1858 को शत्रु की विशाल सेना ने रानी को घेर लिया। कई घाव लगने पर रानी खून से लथपथ हो गयीं। उस समय उनके युद्ध करने के कौशल को देखकर प्रत्यक्षदर्शियों के कलेजे फट गए। अंग्रेजों ने उन्हें जिंदा पकड़ने का प्रयास किया लेकिन वो घेरा तोड़कर निकल गयीं। उनके सर की चमड़ी फटकर उनकी आंखों पर आ रही थी और उन्हें बड़ी मुश्किल से दिखाई दे रहा था।
रानी का अंतिम संकल्प ये था कि जीते जी उन्हें अंग्रेज़ न छू पाएं। उन्होंने अपने साथियों को आदेश दिया। एक साधु ने अपनी कुटिया तोड़कर चिता बनाई। जैसे ही प्राण निकले, तुरंत उनके शरीर को जला दिया गया। चिता जलती देख अंग्रेज़ तुरंत पहुँचे लेकिन साधु और उनके शिष्य अपने प्राण देकर उन्हें चिता जल जाने तक रोके रहे।
रानी लक्ष्मीबाई का शरीर तो पंचतत्वों में मिल गया लेकिन उनकी कीर्ति हवाओं में घुलकर सभी दिशाओं में फैल गयी। जिसने भी उन्हें देखा, सुना और समझा, उसने अपने ढंग से उनकी कहानी अगली पीढ़ियों को बताई। ये सैकड़ों गाथाएं लोकगीतों, दंतकथाओं, कविताओं एवं कथाओं के रूप में आज भी मौजूद हैं।
अंत में हम प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की निम्न पंक्तियों से उस देवी के बलिदान को नमन करेंगे-
जाओ रानी, याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी
ये तेरा बलिदान, जगायेगा स्वतंत्रता अविनाशी
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू एक अमिट निशानी थी
बुंदेले, हरबोलों के मुँह, हमने ये सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थी
सच में एक ऐसे समाज भी जहां पुरुषों का महत्व हो एक रानी का एक योद्धा के रूप में उभरना एक अविश्वसनीय काम है आपके द्वारा लिखा गया पोस्ट बहुत ही बेहतरीन था
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