तुलसीदास जी का एक चित्र जिसे गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तक से लिया गया है। यहां उनके बैठने की मुद्रा पर ध्यान दीजिए! |
दोस्तों, आज हम बात करेंगे भक्तकवि तुलसीदास जी के बारे में। उनकी रचनाओं हनुमानचालीसा और रामचरितमानस को हर दिन करोड़ों लोग पढ़ते और सुनते हैं। वह भारतीय संस्कृति के आधारभूत स्तंभों में एक हैं।
इतिहास कहता है, तुलसीदास जी बिल्कुल साधारण परिवार से थे। जन्म के तुरंत बाद ही मां- बाप से वंचित हो गए। किसी तरह जीवन चला। युवा होने पर धार्मिक कथावाचक बने।
आज के इस लेख में हम उन घटनाओं और परिस्थितियों को देखेंगे जिन्होंने एक साधारण कथावाचक को इतिहास का सबसे बड़ा भक्तकवि बना दिया!
खुद तुलसीदास जी के शब्दों में- " घर घर मांगे टूक पुनि, भूपति पूजे पाय। जे तुलसी तब राम विमुख, ते अब राम सहाय"
" मतलब?"
" जब राम का ज्ञान नहीं था, तो घर घर भीख मांगकर खाना पड़ता था। जब से राम का ज्ञान हुआ है, राजा लोग भी मेरे पैर दबाने लगे हैं"
आइये, शुरू से देखते हैं।
तुलसी का जन्म अति साधारण परिवार में हुआ।दुखद स्थितियों में हुआ।जन्म के दूसरे ही दिन माता हुलसी का देहांत हो गया।मान्यता है, जन्म के समय उनके मुंह में दांत आ चुके थे।बालक के रोने की आवाज़ भी विचित्र थी। गाँव देहात के अंधविश्वासी लोगों ने बालक को भाग्यहीन कहा। प्रबल मानसिक शोक में पिता आत्माराम उन्हें त्यागकर और घर बार छोड़कर चले गए।
एक मजदूरिन चुनिया ने बालक को अपनाया।बड़े प्रेम से वह बालक को रामबोला कहती! लेकिन साढ़े पांच साल की उम्र में वह भी चल बसी। अब इस संसार में बालक रामबोला का कोई नहीं रहा।मरते समय चुनिया उसे कह गयी थी कि अब राम ही उसके सहायक होंगे।
दोस्तों, क्या हम उस छह-सात साल के बच्चे का कष्ट समझ सकते हैं जिसके पास मां की ममता और पिता का स्नेह न हो! जिसे पीने के लिए दूध तो छोड़िए, खाने के लिए सूखी रोटी न मिले! जिसे मनहूस कहकर हर घर से दुत्कारा जाता हो! जब गाँव के बच्चे उत्सवों में आनंद मनाते, नए कपड़े और खिलौने लेते! बालक रामबोला उन्हें दूर से ही देखकर रोता रहता! आखिर अपना कष्ट कहने कहाँ जाता! संसार में कोई ऐसा था ही नहीं, जो उसके आंसू पोछे! अधिकांशतः गाँव के मंदिर में ही पड़ा रहता। वहां साधुओं का आवागमन होता रहता था। बालक रामबोला उनकी सेवा करता! उनसे राम के बारे में पूछता!
एक बार नरहरि बाबा नामक साधु आये। बालक रामबोला के कष्टों को देखा।उनका मन द्रवित हो उठा! वे रामबोला को साथ ले गए।
नरहरि बाबा ने रामबोला का नाम तुलसीदास रखा।तुलसी अत्यंत भावुक और संवेदनशील थे।अतः उसे भक्तियोग की शिक्षा दी। शिष्य अपने गुरु से भी बढ़कर निकला! कुछ ही वर्षों में तुलसी में प्रचंड प्रतिभाएं प्रकट हुईं। उनमें विलक्षण स्मरणशक्ति और वाकशक्ति का विकास हुआ।
नरहरि बाबा रामायण के बहुत बड़े विद्वान थे।जहाँ भी रामकथा कहते, रामबोला साथ जाता! बड़े ध्यान से सुनता! उसे पूरी रामकथा और उसे कहने का तरीका याद हो गया।यहाँ एक बात ध्यान देने की है, उस समय रामकथा संस्कृत में होती थी।
दोस्तों, एक दिलचस्प बात है! हम जिस समय की चर्चा कर रहे हैं, उस समय भारत में मुगलों का शासन था। शासक वर्ग मूर्तिपूजा का विरोधी था। अयोध्या, काशी और मथुरा जैसे केंद्र लगभग जर्जर हो चुके थे। ऐसे माहौल में साधारण जनता के लिए रामकथा का आयोजन कराना और रामकथा कहना किसी जोखिम से कम नहीं था। आम जनता रामकथा को भूलती जा रही थी!
नरहरि बाबा चाहते थे कि तुलसीदास आम लोगों के बीच रहकर लोकभाषा में रामकथा सुनाएं। उन्होंने तुलसी को बहुत अच्छे से प्रशिक्षित किया।उनके साथ तुलसी बहुत जगहों पर घूमे। आम जनता, उसके विश्वासों, रीति रिवाजों को गहराई से समझा।
दोस्तों,अब एक बहुत ही विचित्र बात हुई।हमने देखा कि बचपन में तुलसी ने बहुत अपमान और कष्ट झेले थे। इसकी उनके मन पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। वो योग्य बन चुके थे। उनके मन में सांसारिक सफलताओं को हासिल करने का निश्चय जगा।वो धन, स्त्री, सम्मान और प्रतिष्ठा हासिल करके गाँव के लोगों को दिखा देना चाहते थे कि वे भाग्यहीन नहीं हैं।
गुरुजी ने समझ लिया! जबतक इसकी ये इच्छा पूरी नहीं होगी, तबतक ये संन्यासी नहीं बनेगा। उन्होंने तुलसी को गांव जाने की आज्ञा दे दी।
तुलसी गाँव लौटे। कल का अभागा रामबोला, अब आचार्य तुलसीदास के रूप में पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गया। उनके जैसी प्रचंड विद्वता और अद्भुत कथावाचन शैली जनता ने अबतक नहीं देखी थी।धन और प्रतिष्ठा बरसने लगे।
एक बार उस क्षेत्र के एक बहुत कुलीन और विख्यात व्यक्ति दीनबंधु जी ने इन्हें कथावाचन हेतु बुलाया। इनकी योग्यता पर मुग्ध होकर अपनी प्रिय पुत्री रत्नावली का विवाह इनके साथ कर दिया! लोकश्रुति के अनुसार, रत्नावली उस गाँव की सबसे योग्य और सुंदर लड़की थी।
यहां तुलसी के जीवन का नया अध्याय शुरू होता है।रत्नावली में उनकी घोर आसक्ति लोगों में परिहास का विषय बनने लगी।
विवाह के बाद एक दिन के लिए भी उन्होंने रत्नावली को मायके नहीं जाने दिया!
दोस्तों, अब थोड़ा रुकते हैं। कुछ योगविज्ञान की बात करते हैं।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- "योग का अभ्यास करनेवाला मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता"
कृष्ण ने ऐसा क्यों कहा है? इसे समझना बहुत ही सरल है।
योगविज्ञान का सिद्धांत है।जब कोई व्यक्ति भक्तियोग का अभ्यास शुरू करता है , तो उसका मूलाधार चक्र जागृत होना शुरू हो जाता है! इससे क्या होगा? उसमें एकाग्रता की शक्ति विशेष रूप से दिखेगी। वह जो भी कार्य करेगा, पूरी शक्ति से करेगा। अब यहां दो परिणाम होंगे। अगर यह एकाग्रता सांसारिक चीजों के प्रति मुड़ जाए, तो व्यक्ति धन,ख्याति आदि प्राप्त कर सकता है। अगर यह ईश्वर की तरफ मुड़ जाए तो व्यक्ति आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति करता है। यहां एक विशिष्ट बात और है, भक्तियोग का अभ्यास करनेवाला व्यक्ति सांसारिक सफलताओं से कभी संतुष्ट नहीं हो पाता! यह असंतुष्टि उसे देर सबेर फिर से आध्यात्मिक क्षेत्र में खींच लेती है। वह फिर से अपना अभ्यास शुरू करता है! अर्थात उसकी भक्ति कभी नष्ट नहीं होती!
अब वापस आते हैं, कथा पर।
एक दिन तुलसी की अनुपस्थिति में रत्ना मायके चली गयी। तुलसी शाम को घर लौटे। जनश्रुति के अनुसार उस दिन बरसात की घोर अंधेरी रात थी। लेकिन तुलसी माने नहीं। पत्नी के पास जा पहुंचे। इसके बाद क्या हुआ, इसका कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता।
जो भी हो, यहां के बाद से तुलसी का जीवन बदल गया। उन्होंने घर छोड़ दिया।कुछ वर्षों के लिए वे कहां रहे, इसका कहीं वर्णन नहीं आता। हाँ, ऐसे कुछ प्रमाण मिल जाते हैं जिनसे पता चलता है कि उन्होनें तीर्थों की यात्रा की और काशी, अयोध्या और चित्रकूट में रहे।
काशी में रहने के दौरान उन्होंने अपनी अलौकिक रचना श्रीरामचरितमानस को पूरा किया। इसमें मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के जीवनवृत के माध्यम से
पुराणों, वेदों , उपनिषदों एवं धर्म के सारतत्व को समझाया गया था।
दोस्तों, एक दिलचस्प बात है! तुलसी के समय में ग्रंथ लिखना बड़ा कठिन कार्य था। न ढंग के कागज़ थे न कलम! एक एक पृष्ठ को सुंदर अक्षरों में लिखने में कई दिन भी लग जाते थे! पृष्ठ के बीच में एक पंक्ति भी गलत हो गयी, तो सारा page फिर से लिखना पड़ता था!
मित्रों, यह तुलसीदास जी की handwriting में लिखी गयी पंक्तियां हैं। उनकेद्वारा स्वयं लिखी गयी रामचरितमानस की प्रति उनके जन्मस्थान राजापुर में बने मंदिर में सुरक्षित हैं। |
तुलसीदास ने अपने ग्रंथ में कहा कि ईश्वर को प्राप्त करने हेतु किसी आडंबर या कर्मकांड की जरूरत नहीं।हम निश्चल प्रेम के द्वारा ईश्वर की कृपा प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने वाणी और कर्म की शुद्धता पर बल दिया।
तुलसी ने अपने रामचरितमानस के द्वारा ईश्वर को आम जनता, गरीबों, आदिवासियों की पहुंच में ला दिया।अब कोई भी व्यक्ति अपने हृदय का प्रेम राम को अर्पित करके उनकी कृपा प्राप्त कर सकता था। यहां किसी मध्यस्थ की जरूरत नहीं रही।
इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि काशी में विद्वानों ने इस नए ग्रंथ का प्रबल विरोध किया। लेकिन आम जनता में इसकी लोकप्रियता दिनोदिन बढ़ती गयी।अंततः आडंबर पर भक्ति की विजय हुई।काशी के सबसे बड़े विद्वानों में से एक मधुसूदन सरस्वती ने जब इस ग्रंथ को पढ़ा तो भावविभोर हो गए! अंततः काशी का विरोध, समर्थन में बदल गया।
रामभक्ति की ये धारा अब चित्रकूट और अयोध्या तक भी पहुंच गई ! इस धार्मिक क्रांति ने मुग़ल शासकवर्ग का ध्यान भी खींचा। ऐसा वर्णन मिलता है कि सम्राट अकबर ने तुलसीदास को अपने पास बुलाया। चमत्कार दिखाने को कहा। जब तुलसी ने उसकी इस प्रवृत्ति का विरोध किया तो उन्हें कारागार में डाल दिया गया। लेकिन जल्दी ही वह इन्हें रिहा करने पर विवश हो गया।
रामचरितमानस की लोकप्रियता बहुत तेज गति से बढ़ी और कुछ ही वर्षों में पूरे भारत में इसका प्रचार हो गया। हर क्षेत्र और भाषा के विद्वानों ने इसकी व्याख्याएं लिखीं। विशेष तौर से उत्तरी भारत के मैदानों में यह जन जन की वाणी बन गया। आज भी हजारों गाँव ऐसे हैं, जहां हर दिन इस ग्रंथ का सामूहिक पाठ किया जाता है।
अब अंत में एक बात, तुलसीदास भारत के पहले कवि थे जिन्होंने भक्त को भगवान से बड़ा बताया।उन्होनें खुलकर कहा-" राम ते अधिक, राम कर दासा" यह एक बहुत बड़ी बात थी ।उनकी रचनाओं में निहित विचारों ने हमारी संस्कृति का वर्तमान स्वरूप गढ़ा है।
दोस्तों, ये लेख लंबा हो गया है।अगर आपने इसे अंत तक पढ़ा है तो निःसंदेह आपमें धैर्य है! मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें।
अंत में, आपकी अपनी वेबसाइट www. ashtyaam. com की तरफ से ढेरों शुभकामनाएं।
बहुत सारा ज्ञान मिला यह कहाणी पढकर।धन्यवाद।
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