कुंभ : अनंत के साथ एकत्व की अनुभूति
कभी सोचा नहीं था कि महाकुम्भ जैसे धार्मिक आयोजन के बारे में कुछ लिखूंगा। लगता था कि दशहरा ,दीपावली ,गणेशोत्सव जैसे धार्मिक उत्सवों की तरह यह भी एक लम्बे समय बल्कि महीनों तक चलनेवाला धार्मिक आयोजन है, लेकिन प्रयागराज कुम्भ में जाकर यह धारणा ध्वस्त हो गयी। उस मूलतत्व की एक झलक मिली कि क्यों हर बार करोड़ों की संख्या में लोग कुम्भस्नान को जाते हैं और कैसे ये परंपरा कई हजार सालों से ज्यों की त्यों चलती आयी है।
प्रयागराज कुम्भ दर्शन के दौरान सन्यासियों ,पुजारियों, पर्यटकों एवं श्रद्धालुओं से बातचीत एवं मेरे अनुभवों पर आधारित यह लेख आपको भारतीय संस्कृति के उस मूल तत्व से परिचित कराएगा जो सारे भारत को एक सूत्र में बांधकर इसे एक और अखंड बनाये रखती है।
शुरू करते हैं।
कुम्भ क्या है? इसके पीछे एक कहानी है -
एक बार देवताओं एवं असुरों में दोस्ती हुयी। इसके पीछे स्वार्थ था। दोनों मानते थे कि समुद्र में resources हैं। लेकिन अकेले दम पर निकालना मुश्किल था। देवों के पास technology थी। असुरों के पास श्रमबल labour force था। दोनों ने मिलकर समुद्र मंथन किया। बहुत कुछ मिला - आपस में बँटता गया। अंत में सबसे बड़ी चीज़ मिली - अमृतकुम्भ अर्थात अमृत से भरा घड़ा। यह नहीं बाँटा गया। इसे देवों ने छीन लिया -पीकर अमर हो गए। जो कुछ असुरों को पहले बंटा था , वो भी छीन लिया। अमृतकुम्भ को कड़ी सुरक्षा में रखा गया। इस सुरक्षा को तोडा गरुड़ ने। कुम्भ लेकर भाग निकले। इसी क्रम में चार जगहों पर अमृत गिरा- हरिद्वार, प्रयाग ,नासिक और उज्जैन। ऐसी मान्यता बनी कि गुरु के सिंह राशि में होने के दौरान इन चार जगहों पर स्नान करने से अमृतपान का फल मिलेगा। तभी से कुम्भ मेले की शुरुआत हो गयी।
ये कहानी शायद आपने भी सुनी हो। लेकिन इसका मतलब क्या है? अमृत मतलब अमरता का ज्ञान। उन तत्वों का ज्ञान जिनसे हम अपनी सभ्यता ,संस्कृति एवं भविष्य को सुरक्षित रख सकते हैं। हर १२ साल पर इसका repetition protocol यह सोचकर बनाया गया जिससे नयी पीढ़ियों को भी यह मुलभुत ज्ञान दिया जा सके एवं सन्यासियों, विद्वानों एवं विशेषज्ञों के रूप में एक teacher class को create किया जा सके। गुरु के सिंह राशि में आने का अर्थ है नई technology को शासक वर्ग के माध्यम से जनता में प्रचलित करना। इस आयोजन में आम जनता की भागीदारी ने इसे मेले का स्वरुप दे दिया।
कुम्भ का मेला कितना पुराना है?
संन्यासी -" बच्चा !जबसे सनातन धर्म संगठित होना शुरू हुआ , तभी से "
श्रद्धालु - " भइया मालूम नहीं,हमने तो कभी पूछा ही नहीं "
विशेषज्ञ -"कुम्भ का सबसे प्राचीन प्रामाणिक विवरण चीनी बौद्ध पर्यटक हुवेन्सांग के द्वारा मिलता है। साढ़े तेरह सौ साल पहले लिखे गए इस विवरण में उसने सम्राट हर्षवर्धन की छत्रछाया में आयोजित हुए कुम्भ मेले का जीवंत वर्णन किया है।उस वक़्त भी यह भारत के प्रमुख आयोजनों में एक था। अतः मोटे तौर पर हम इसे डेढ़ हजार साल पुराना तो कह ही सकते हैं। "
अब जानते हैं इस मेले से जुड़े अखाड़ों एवं शाही स्नान से जुडी बातों को। आपने news में कई बार चर्चा सुनी होगी। अखाड़ों का अर्थ है सन्यासियों का समूह। इनका गठन आदि शंकराचार्य ने किया था। उन्होंने नियम बनाया कि हर कुम्भ में ये अखाड़े एकत्रित होंगे एवं स्नान करेंगे। इसके लिए पूरी प्रक्रिया बनाई गयी जो आजतक प्रचलित है। कभी कभार मुगलों ने एवं अंग्रेज़ों ने टांग अड़ाई तो साधुओं ने उनको नानी याद दिला दी। शंकराचार्य के नियमों से चलने वाले इन अखाड़ों द्वारा पूरे ठाट बाट से किया जानेवाला स्नान ही शाही स्नान कहलाता है।
कुंभ का महत्व क्या है?
संन्यासी -" जिसने कुम्भ को समझ लिया ,उसके भीतर परिवर्तनों की एक श्रृंखला शुरू हो जाती है। जैसे ही आप संगम के पवित्र जल में डुबकी लगाते हो , आप उस परम चैतन्य के साथ एकाकार हो जाते हो जो हर प्राणी में है , इस सृष्टि के हर कण में है। इसके बाद तो ये पूरी सृष्टि आपकी है और आप इस पूरी सृष्टि के। जल की शाश्वत प्रवृति होती है घोलना। पूरी एकाग्रता से लगाई गयी डुबकी आपके समस्त कुसंस्कारों को घोलकर निकाल देती है और आपको पवित्र बना देती है। इस विशिष्ट क्षण में व्यक्ति जैसा संकल्प करले ,आनेवाले जीवन में वैसे ही परिवर्तन उसमें होने लगेंगे "
पुजारी -" नहाने से और पूजा करवाकर दान दक्षिणा देने से पुण्य मिलेगा। जितना चढ़ाओगे उतना ही ज्यादा पाओगे। "
श्रद्धालु -" पुण्य मिलेगा। साधु-महात्मा लोगों के दर्शन होंगे । "
पर्यटक-" यहाँ पूरे भारत के एक साथ दर्शन हो जाते हैं। हिन्दू धर्म के सारे संप्रदाय, सारे प्रमुख आचार्यों को एक साथ देखा और समझा जा सकता है। धर्म किस तरह लोगों को प्रभावित करता है , इसको समझने के लिए यह best place और best occasion है।
ऊपर लिखी बातों में पुजारी को छोड़कर मैं बाकी सभी से सहमत हूँ कि हाँ ऐसा हो सकता है , शायद होता भी है।
कैसे? एक example से समझिये। एक आदमी है। कहीं का भी ले लीजिये -रायपुर, कानपुर ,दिल्ली ,ढाका कहीं का भी। बिचारा धक्के खाते हुए कुम्भ में पहुँचता है - bus से train से , कैसे भी आये, आम आदमी को तो धक्के खाने ही पड़ते हैं।थकी हालत में यहाँ पहुंचकर वह विशाल भारत का विराट स्वरुप देखता है। समाज में पायी जानेवाली हर अच्छी और बुरी प्रवृति के लोग इस भीड़ में मिलते हैं। तरह तरह के संप्रदाय, तरह तरह के साधु , तरह तरह के ठग ,अमीर -गरीब , अच्छे - बुरे , अनपढ़ -विद्वान आदि असंख्य तरह के तत्वों से मिलकर बनी भीड़ उसे और थका देती है। इस तरह की मनोदशा में वह स्नान करता है और इसके बाद कुछ खाकर असीम सुख का अनुभव करता है। कुछ समय के लिए personal tensions परे हट जाती हैं। इसके बाद उसके मन मस्तिष्क संत महात्माओं का उपदेश ग्रहण करने के लिए सर्वधिक अनुकूल दशा में आ जाते हैं। और हमारा धर्मतंत्र इस मौके का भरपूर सदुपयोग करता है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म के सारे धड़े अपनी पूरी ताकत से इन आयोजनों में लोगों की सेवा करके उन्हें प्रभावित करने में जुटे रहते हैं। क्यों? लोग प्रभावित होकर बात सुनेंगे तभी तो उनके followers बनेंगे।
अब अंत में उस मूल तत्व की बात जो पूरी सनातन संस्कृति को एक सूत्र में बांध कर रखती है -यह तत्व है ईश्वर और उनके प्रतिनिधियों अर्थात संत महात्माओं में आस्था। कैसे ? आप इन आयोजनों में आये हुए किसी व्यक्ति से भी पूछ लीजिये- यहाँ क्यों आये हो? उसका जवाब चाहे जो भी हो, उसमें ईश्वरीय आस्था की बात जरूर होगी। यही वो तत्त्व है जो बड़ी बड़ी विपत्तियों में , हजारों साल की गुलामी में भी कभी कम नहीं हुआ। जबतक ये मूलतत्व रहेगा, कुम्भ जैसे मेले भी पूरी शान से लगते रहेंगे और लोगों को लाभ पहुँचाते रहेंगे।
इसी मूल तत्व को मेरे एक मित्र ने इस तरह श्लोक में बताया-
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदचयते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्य्ते।।
मतलब ? इस मूल तत्व अर्थात ईश्वरीय श्रद्धा में चाहे जितना भी जोड़ लो या घटा लो , ये हमेशा बनी रहेगी , कभी भी नष्ट नहीं होगी। कई विशेषज्ञों ने इसे ही भारतीयता की मूलभावना कहा है.
अंत में -
आभार - उन समस्त लोगों का जिन्होंने खुले दिल से ज्ञान की बातें बताई जो मैं आपतक पंहुचा रहा हूँ।
खेद - उन लोगों के प्रति जो भरपूर प्रयास करके भी मुझसे अपनी दक्षिणा नहीं वसूल पाए!
अनुरोध - अगर आप नहीं गए हैं तो जब भी मौका मिले , जरूर जाएँ। अपने पद , प्रतिष्ठा , सम्पति को दो चार दिनों के लिए अलग रखकर एक साधारण व्यक्ति बनकर जाएँ। यकीन करिये, आपको पछतावा नहीं होगा।
अंत में कुछ तस्वीरें जो मैं अपने मोबाइल से खींच पाया -
कभी सोचा नहीं था कि महाकुम्भ जैसे धार्मिक आयोजन के बारे में कुछ लिखूंगा। लगता था कि दशहरा ,दीपावली ,गणेशोत्सव जैसे धार्मिक उत्सवों की तरह यह भी एक लम्बे समय बल्कि महीनों तक चलनेवाला धार्मिक आयोजन है, लेकिन प्रयागराज कुम्भ में जाकर यह धारणा ध्वस्त हो गयी। उस मूलतत्व की एक झलक मिली कि क्यों हर बार करोड़ों की संख्या में लोग कुम्भस्नान को जाते हैं और कैसे ये परंपरा कई हजार सालों से ज्यों की त्यों चलती आयी है।
प्रयागराज कुम्भ दर्शन के दौरान सन्यासियों ,पुजारियों, पर्यटकों एवं श्रद्धालुओं से बातचीत एवं मेरे अनुभवों पर आधारित यह लेख आपको भारतीय संस्कृति के उस मूल तत्व से परिचित कराएगा जो सारे भारत को एक सूत्र में बांधकर इसे एक और अखंड बनाये रखती है।
शुरू करते हैं।
कुम्भ क्या है? इसके पीछे एक कहानी है -
एक बार देवताओं एवं असुरों में दोस्ती हुयी। इसके पीछे स्वार्थ था। दोनों मानते थे कि समुद्र में resources हैं। लेकिन अकेले दम पर निकालना मुश्किल था। देवों के पास technology थी। असुरों के पास श्रमबल labour force था। दोनों ने मिलकर समुद्र मंथन किया। बहुत कुछ मिला - आपस में बँटता गया। अंत में सबसे बड़ी चीज़ मिली - अमृतकुम्भ अर्थात अमृत से भरा घड़ा। यह नहीं बाँटा गया। इसे देवों ने छीन लिया -पीकर अमर हो गए। जो कुछ असुरों को पहले बंटा था , वो भी छीन लिया। अमृतकुम्भ को कड़ी सुरक्षा में रखा गया। इस सुरक्षा को तोडा गरुड़ ने। कुम्भ लेकर भाग निकले। इसी क्रम में चार जगहों पर अमृत गिरा- हरिद्वार, प्रयाग ,नासिक और उज्जैन। ऐसी मान्यता बनी कि गुरु के सिंह राशि में होने के दौरान इन चार जगहों पर स्नान करने से अमृतपान का फल मिलेगा। तभी से कुम्भ मेले की शुरुआत हो गयी।
ये कहानी शायद आपने भी सुनी हो। लेकिन इसका मतलब क्या है? अमृत मतलब अमरता का ज्ञान। उन तत्वों का ज्ञान जिनसे हम अपनी सभ्यता ,संस्कृति एवं भविष्य को सुरक्षित रख सकते हैं। हर १२ साल पर इसका repetition protocol यह सोचकर बनाया गया जिससे नयी पीढ़ियों को भी यह मुलभुत ज्ञान दिया जा सके एवं सन्यासियों, विद्वानों एवं विशेषज्ञों के रूप में एक teacher class को create किया जा सके। गुरु के सिंह राशि में आने का अर्थ है नई technology को शासक वर्ग के माध्यम से जनता में प्रचलित करना। इस आयोजन में आम जनता की भागीदारी ने इसे मेले का स्वरुप दे दिया।
कुम्भ का मेला कितना पुराना है?
संन्यासी -" बच्चा !जबसे सनातन धर्म संगठित होना शुरू हुआ , तभी से "
श्रद्धालु - " भइया मालूम नहीं,हमने तो कभी पूछा ही नहीं "
विशेषज्ञ -"कुम्भ का सबसे प्राचीन प्रामाणिक विवरण चीनी बौद्ध पर्यटक हुवेन्सांग के द्वारा मिलता है। साढ़े तेरह सौ साल पहले लिखे गए इस विवरण में उसने सम्राट हर्षवर्धन की छत्रछाया में आयोजित हुए कुम्भ मेले का जीवंत वर्णन किया है।उस वक़्त भी यह भारत के प्रमुख आयोजनों में एक था। अतः मोटे तौर पर हम इसे डेढ़ हजार साल पुराना तो कह ही सकते हैं। "
अब जानते हैं इस मेले से जुड़े अखाड़ों एवं शाही स्नान से जुडी बातों को। आपने news में कई बार चर्चा सुनी होगी। अखाड़ों का अर्थ है सन्यासियों का समूह। इनका गठन आदि शंकराचार्य ने किया था। उन्होंने नियम बनाया कि हर कुम्भ में ये अखाड़े एकत्रित होंगे एवं स्नान करेंगे। इसके लिए पूरी प्रक्रिया बनाई गयी जो आजतक प्रचलित है। कभी कभार मुगलों ने एवं अंग्रेज़ों ने टांग अड़ाई तो साधुओं ने उनको नानी याद दिला दी। शंकराचार्य के नियमों से चलने वाले इन अखाड़ों द्वारा पूरे ठाट बाट से किया जानेवाला स्नान ही शाही स्नान कहलाता है।
कुंभ का महत्व क्या है?
संन्यासी -" जिसने कुम्भ को समझ लिया ,उसके भीतर परिवर्तनों की एक श्रृंखला शुरू हो जाती है। जैसे ही आप संगम के पवित्र जल में डुबकी लगाते हो , आप उस परम चैतन्य के साथ एकाकार हो जाते हो जो हर प्राणी में है , इस सृष्टि के हर कण में है। इसके बाद तो ये पूरी सृष्टि आपकी है और आप इस पूरी सृष्टि के। जल की शाश्वत प्रवृति होती है घोलना। पूरी एकाग्रता से लगाई गयी डुबकी आपके समस्त कुसंस्कारों को घोलकर निकाल देती है और आपको पवित्र बना देती है। इस विशिष्ट क्षण में व्यक्ति जैसा संकल्प करले ,आनेवाले जीवन में वैसे ही परिवर्तन उसमें होने लगेंगे "
पुजारी -" नहाने से और पूजा करवाकर दान दक्षिणा देने से पुण्य मिलेगा। जितना चढ़ाओगे उतना ही ज्यादा पाओगे। "
श्रद्धालु -" पुण्य मिलेगा। साधु-महात्मा लोगों के दर्शन होंगे । "
पर्यटक-" यहाँ पूरे भारत के एक साथ दर्शन हो जाते हैं। हिन्दू धर्म के सारे संप्रदाय, सारे प्रमुख आचार्यों को एक साथ देखा और समझा जा सकता है। धर्म किस तरह लोगों को प्रभावित करता है , इसको समझने के लिए यह best place और best occasion है।
ऊपर लिखी बातों में पुजारी को छोड़कर मैं बाकी सभी से सहमत हूँ कि हाँ ऐसा हो सकता है , शायद होता भी है।
कैसे? एक example से समझिये। एक आदमी है। कहीं का भी ले लीजिये -रायपुर, कानपुर ,दिल्ली ,ढाका कहीं का भी। बिचारा धक्के खाते हुए कुम्भ में पहुँचता है - bus से train से , कैसे भी आये, आम आदमी को तो धक्के खाने ही पड़ते हैं।थकी हालत में यहाँ पहुंचकर वह विशाल भारत का विराट स्वरुप देखता है। समाज में पायी जानेवाली हर अच्छी और बुरी प्रवृति के लोग इस भीड़ में मिलते हैं। तरह तरह के संप्रदाय, तरह तरह के साधु , तरह तरह के ठग ,अमीर -गरीब , अच्छे - बुरे , अनपढ़ -विद्वान आदि असंख्य तरह के तत्वों से मिलकर बनी भीड़ उसे और थका देती है। इस तरह की मनोदशा में वह स्नान करता है और इसके बाद कुछ खाकर असीम सुख का अनुभव करता है। कुछ समय के लिए personal tensions परे हट जाती हैं। इसके बाद उसके मन मस्तिष्क संत महात्माओं का उपदेश ग्रहण करने के लिए सर्वधिक अनुकूल दशा में आ जाते हैं। और हमारा धर्मतंत्र इस मौके का भरपूर सदुपयोग करता है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म के सारे धड़े अपनी पूरी ताकत से इन आयोजनों में लोगों की सेवा करके उन्हें प्रभावित करने में जुटे रहते हैं। क्यों? लोग प्रभावित होकर बात सुनेंगे तभी तो उनके followers बनेंगे।
अब अंत में उस मूल तत्व की बात जो पूरी सनातन संस्कृति को एक सूत्र में बांध कर रखती है -यह तत्व है ईश्वर और उनके प्रतिनिधियों अर्थात संत महात्माओं में आस्था। कैसे ? आप इन आयोजनों में आये हुए किसी व्यक्ति से भी पूछ लीजिये- यहाँ क्यों आये हो? उसका जवाब चाहे जो भी हो, उसमें ईश्वरीय आस्था की बात जरूर होगी। यही वो तत्त्व है जो बड़ी बड़ी विपत्तियों में , हजारों साल की गुलामी में भी कभी कम नहीं हुआ। जबतक ये मूलतत्व रहेगा, कुम्भ जैसे मेले भी पूरी शान से लगते रहेंगे और लोगों को लाभ पहुँचाते रहेंगे।
इसी मूल तत्व को मेरे एक मित्र ने इस तरह श्लोक में बताया-
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदचयते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्य्ते।।
मतलब ? इस मूल तत्व अर्थात ईश्वरीय श्रद्धा में चाहे जितना भी जोड़ लो या घटा लो , ये हमेशा बनी रहेगी , कभी भी नष्ट नहीं होगी। कई विशेषज्ञों ने इसे ही भारतीयता की मूलभावना कहा है.
अंत में -
आभार - उन समस्त लोगों का जिन्होंने खुले दिल से ज्ञान की बातें बताई जो मैं आपतक पंहुचा रहा हूँ।
खेद - उन लोगों के प्रति जो भरपूर प्रयास करके भी मुझसे अपनी दक्षिणा नहीं वसूल पाए!
अनुरोध - अगर आप नहीं गए हैं तो जब भी मौका मिले , जरूर जाएँ। अपने पद , प्रतिष्ठा , सम्पति को दो चार दिनों के लिए अलग रखकर एक साधारण व्यक्ति बनकर जाएँ। यकीन करिये, आपको पछतावा नहीं होगा।
अंत में कुछ तस्वीरें जो मैं अपने मोबाइल से खींच पाया -
प्रयाग में प्रवेश करते ही दिखा -" प्रयाग में आने मात्र से ही पापों से मुक्ति मिल जाती है। इसे कहते हैं- प्रोत्साहन देने की पराकाष्ठा
स्वच्छता पर कुंभ में बहुत जोर दिया जा है। हम सभी देशवासी इसमें प्रधानमंत्री जी के साथ हैं।
प्राचीन काल में आम जनता को यही सब कहकर प्रयाग आने को motivate किया जाता था। |
इस्कोन वालों का शिविर लोगों की बहुत अच्छी सेवा कर रहा है। चैतन्य महाप्रभु इसी भक्तिधारा के जनक हैं। |
बायीं तरफ रेल का पुल है, दायीं तरफ सड़क का।जब ये नही थे, सोचिये आना कितना मुश्किल रहा होगा। |
जिधर देखिए, सजावट नजर आती है। |
ये लड़की छोटी उम्र में ही रस्सी पर खड़ी होकर हर तरह का करतब दिखा सकती है।अगर ऐसी प्रतिभाओं को बचपन से ही चयनित करके training दी जाए तो gymnastics में हमारे medals पक्के हो सकते हैं। |
ये है अति प्राचीन नाग वासुकि मंदिर।मान्यता है कि संगम स्नान के बाद यहां आकर दर्शन करना चाहिए। ये वहीं नागवासुकि हैं जिन्होंने समुद्र मंथन में key role निभाया था। |
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